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३00 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अत्यन्त कम कर देने के समान, जब जीव अपने विशुद्ध परिणामों के बल से उन कर्मपुद्गलों की सर्वघाती रसशक्ति को घटा देता है, और सिर्फ एकस्थानक रस शेष रह जाता है, तब एक-स्थानक शक्ति वाले मिथ्यात्व-मोहनीय के शुद्ध पुद्गलों को सम्यक्त्व-मोहनीय कहा जाता है। और जब कुछ भाग शुद्ध और कुछ भाग, अशुद्ध, ऐसे कोदों के समान स्थिति होती है, यानि मिथ्यात्वमोहनीय के कुछ पुद्गल शुद्ध और कुछ अशुद्ध होते हैं, तब उसे मिश्र-मोहनीय कहा जाता है। इन कर्म-पुद्गलों में द्विस्थानक रस होता है। इस प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म भी जीव के परिणाम-विशेष के द्वारा मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग-मिथ्यात्वरूप तीन भागों (प्रकारों) में परिणत हो जाता है। _ मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के पुद्गल अपनी स्वयं की हित-अहित-परीक्षा में विफल करने वाले होते हैं; जिसका रस तीव्रतम और सर्वघाती होता है। किन्तु इसमें तत्त्वरुचि बिलकुल नहीं होती। जबकि सम्यक्त्व-मोहनीय में तत्त्वरुचि तो होती है, किन्तु अन्दर ही अन्दर अरुचि के कारण वह दबी हुई रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मिथ्यात्वमोहनीय का शिकार जीव असत्य को सत्य और सत्य को असत्य समझता है, अथवा शुभ को अशुभ और अशुभ को शुभ समझता है। सम्यग्मिथ्यात्वमोहकर्मग्रस्त प्राणी सत्य-असत्य या शुभ-अशुभ के सम्बन्ध में कोई भी निर्णय नहीं कर पाता, अनिश्चयात्मक स्थिति में रहता है। सम्यक्त्वमोहनीय में दृष्टिकोण की
आंशिक विशुद्धता अवश्य है, पर वह क्षायिक या औपशमिक सम्यक्त्व की उपलब्धि में बाधक है। मिश्रमोहनीय वाले की न तो तत्व में रुचि होती है और न अरुचि।२ इन तीनों प्रकारों में हीनाधिकता का प्रमाण . यही कारण है कि कर्मशास्त्रियों मे इन तीनों के अनुभवों में न्यूनाधिकता इस प्रकार बताई है-मिथ्यात्व-मोहनीय का अनुभाव सर्वाधिक होता है। मिथ्यात्व-मोहनीय से सम्यग्-मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म का अनुभाव अनन्तगुणाहीन, तथा सम्यग्-मिथ्यात्वमोहनीय से सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म का अनुभाव अनन्तगुणाहीन होता है।३ इन तीनों में सर्वघातित्व देशघातित्व का स्पष्टीकरण
इसका स्पष्टीकरण कर्मग्रन्थकारों ने इस प्रकार किया है-दर्शनमोहनीय के पूर्वोक्त तीन भेदों में से मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के पुद्गल सर्वघाती रस वाले होते हैं। उस रस
१. कर्मग्रन्थ भा. १, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से, पृ. ७१, ७२ २. (क) जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण, पृ. १२० __(ख) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा. १ से, पृ. ३७१ ३. कर्मग्रन्थ भा. १ विवेचन (मरुधरकेसरी) से, पृ. ६९
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