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उत्तर - प्रकृतिबन्ध: प्रकार, स्वभाव और कारण - ३ २९९ की अपेक्षा से आत्मपरिणामों के द्वारा वह सम्यक्त्व - मोहनीय, मिथ्यात्व - मोहनीय और मिश्रमोहनीय, इन तीन भागों में परिणत हो जाता है । '
इसका मुख्य कारण यह है कि मिध्यात्व के दलिक कितनी ही बार विशुद्ध होते हैं, कितनी दफा वे कर्मदलिक अर्धविशुद्ध होते हैं और बहुत-सी दफा तो अशुद्ध होते हैं। समस्त अज्ञान या मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त न हुई हो, वहाँ तक पूर्ण शुद्ध अंश का ग्रहण नहीं हो सकता। जहाँ दर्शन- मोहनीय कर्मवर्गणा के शुद्ध दलिक ही होते हैं, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कर्म वर्गणा समझना। इसमें दर्शनमोह के दलों का रस बहुत अल्प होता है। अर्धविशुद्ध मिश्र - मोहनीय में आधा रास्ता तो ठीक है, शेष में तो अव्यवस्था ही होती है। मिथ्यात्व - मोहनीय के अशुद्ध कर्मदल में तो बिलकुल ही उलटी बुद्धि होती है। मिश्रमोहनीय में तो तत्त्वरुचि भी नहीं होती, अरुचि भी नहीं होती, किन्तु मिथ्यात्वमोहनीय में तो सच्चा हो; वह भी खोटा प्रतीत होता है, सफेद हो तो भी लाल मालूम होता है। २
इन तीनों में से मिथ्यात्व - मोहनीय स्वस्थान सत्ता प्रकृति है, जबकि सम्यक्त्वमोहनीय एवं मिश्रमोहनीय, ये दोनों प्रकृतियाँ उत्पन्न - सत्ता वाली प्रकृतियाँ हैं। इसके अतिरिक्त बन्धकाल में मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म- प्रकृति एक प्रकार की होने पर भी इनमें रसशक्ति न्यूनाधिक होने से तीन प्रकार की हो जाती है । ३ जैसे कोद्रव (कोदों, एक प्रकार का ) धान्य एक ही प्रकार का होता है। उसके खाने से नशा होता है । परन्तु जब उन कोदों के अन्नकणों का छिलका निकाल दिया जाए और छाछ आदि से धोकर शोध लिया जाए तो उसमें मादक शक्ति बहुत कम रह जाती है। अर्थात्-जैसे कोद्रव नामक धान्य एक प्रकार का होते हुए प्रक्रियाविशेष से तीन प्रकार का (चावल, आधा चावल और शुद्ध कोद्रव) तीन अवस्थाओं को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही असली कोदों के समान हिताहित की परीक्षा में विफल बनाने वाले अशुद्ध मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के पुद्गल होते हैं। उनमें सर्वघाती रस होता है। किन्तु जब कोदों की मादक शक्ति को
१. (क) दंसणमोह तिविहं सम्म मीसं तहेव मिच्छत्तं ।
सुद्धं अद्धविसुद्ध अविसुद्ध तं हवइ कमसो ॥
(ख) उत्तराध्ययन सूत्र ३३ / ९
(ग) दंसणमोहणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविधे पण्णत्ता ?
गोयमा ! तिविहे प. तं. सम्मत्तवेयणिज्जे, मिच्छत्तवेयणिज्जे सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे ।
- कर्मग्रन्थ १/१४ विवेचन ( मरुधर केशरी), पृ. ६९
(घ) जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण पृ. ५९
(ङ) बंधादेकं मिच्छं उदयं सत्तं पडुच्च तिविहं खु । दंसणमोह मिच्छं मिस्स सम्मत्तमिदि जाणे ॥
२. जैनदृष्टिए कर्म से, भावांशग्रहण, पृ. ५९ ३. कर्मप्रकृति से, पृ. २१
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- प्रज्ञापना पद २३, उ.२
- कम्मपयडी ५३
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