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उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - २ २९
साता-असातावेदनीय का फलानुभव कैसे-कैसे
सातावेदनीय कर्म जब फलोन्मुख होता है तब आठ प्रकार से जीव को फलभोग् कराता है - ( 9 ) मनोहर शब्द - प्राप्ति, (२) मनोहर रूप - प्राप्ति, (३) मनोरम्य गन्ध - प्राप्ति, (४) मनोज्ञ रस प्राप्ति, (५) मनोज्ञ स्पर्श-प्राप्ति, (६) इष्ट सुखों की उपलब्धि, (७) सुखमय वचन - प्राप्ति, (८) शारीरिक सुख प्राप्ति। इसके विपरीत असातावेदनीय कर्म जब उदय में आकर फलोन्मुख होता है, तब भी आठ प्रकार से उस जीव के द्वारा पहले बांधे हुए असातावेदनीय कर्म का फल भुगवाता है - (१) अमनोज्ञ शब्द - प्राप्ति, (२) अप्रिय रूप प्राप्ति, (३) अप्रिय गन्ध-प्राप्ति, (४) अमनोज्ञ रस-प्राप्ति, (५) अप्रिय स्पर्श-प्राप्ति, (६) दुर्भावयुक्त मन की प्राप्ति, (७) अप्रिय कर्णकटु वचन-प्राप्ति, और (८) अमनोज्ञ ( अस्वस्थ अशक्त) शरीर -प्राप्ति । असातावेदनीय कर्म के प्रकोप से जीवन में जो भी चक्र चलता है, वह दुःख, शोक, तनाव, चिन्ता, क्लेश, विलाप और परिताप का कारण बनता है । '
साता - असातावेदनीय कर्मों का फलभोग स्वतः भी, परतः भी
वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियों का अनुभाव ( फलभोग) भी स्वतः और परतः दोनों प्रकार से होता है। बाह्य निमित्तों के न होते हुए भी जीव को सातावेदनीय या असातावेदनीय कर्म के उदय से जो सुख तथा दुःख का अनुभव होता है, या वैसा फलभोग करना पड़ता है, उसे स्वतः अनुभाव समझना चाहिए। परतः अनुभाव पुद्गलों, पुद्गल-परिणामों तथा स्वाभाविक पुद्गलपरिणामों के निमित्त से होता है। माला, चन्दन आदि के या अनेक मनोज्ञ पुद्गलों का उपभोग करके जीव का सुखानुभव करना सातावेदनीय का परतः अनुभाव है। देश, काल, वय और स्थिति के अनुरूप आहार के परिणमनरूप पुद्गल परिणाम से जीव सातावेदनीय का परतः सुखानुभव करता है। वेदना के प्रतिकाररूप शीतोष्णादि का निमित्त पाकर जीव का सुखानुभव करना भी स्वाभाविक पुद्गल - परिणाम के निमित्त से सातावेदनीय का परतः अनुभाव है। मनोज्ञ शब्दादि विषयों के बिना भी सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव जो सुखोपभोग करता है, वह सातावेदनीय कर्म का निरपेक्ष (स्वतः) अनुभाव है। जैसे - तीर्थंकर भगवान् के जन्मादि के समय नारकों को होने वाला सुख निरपेक्ष अनुभाव होता है । असातावेदनीय कर्म का परतः अनुभाव इस प्रकार है- विष, शब्द, कण्टकादि पुद्गलों का निमित्त पाकर जीव दुःख भोगता है, वह पुद्गल निमित्तक परतः अनुभाव है। अपथ्य आहार से जो दुःख भोग होता है, वह पुद्गलपरिणाम- निमित्तक परतः अनुभाव है। इसी प्रकार अकाल में अनिष्ट शीतोष्णादि रूप स्वाभाविक पुद्गल - परिणाम के निमित्त से जीव के मन में जो दुःख, अशान्ति या असमाधि होती है, वह भी परतः अनुभाव है । २
१. ज्ञान का अमृत से सारांश ग्रहण, पृ. २७४-२७५ २. ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. २७७
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