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८४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) भिन्न विचारों, मान्यताओं या विचारधारा या मान्यतावालों, भिन्न जातियों, अन्य सम्प्रदायों, पंथों, धर्मों, देशों, वेषों या भाषा वालों को पराया मानकर उनके प्रति घृणाभाव, द्वेषभाववश विपरीत सम्बन्ध बनाता है। फलतः इन अनुकूल-प्रतिकूल, मनोज्ञ-अमनोज्ञ इष्ट-अनिष्ट के सम्बन्धों से इच्छित प्रतिक्रिया होने पर राग और अनिच्छित प्रतिक्रिया होने पर द्वेष उत्पन्न होने लगता है। अतः व्यक्ति की हृदयभूमि पर जब राग या द्वेष का बीजारोपण होता है, तब कर्मबन्ध हुए बिना नहीं रहता। ये दोनों ही परिस्थितियाँ अन्ततः हानिकारक, भयंकर, तीव्र पापकर्मबन्धक और वैर-परम्परा की वृद्धि करने वाली सिद्ध होती हैं।' राग और द्वेष वस्तु पर निर्भर नहीं, ग्राहक पर निर्भर ..
इसीलिए आचार्य उमास्वाति ने कहा है-"जगत में कोई भी वस्तु या व्यक्ति अपने आप में न तो रम्य, या प्रिय है, न ही अरम्य या अप्रिय! प्रियत्व और अप्रियत्व ग्राहक (द्रष्टा) की दृष्टि पर निर्भर है।" "एक व्यक्ति एक समय किसी वस्तु से द्वेष करता है, दूसरे समय उसी वस्तु में लीन हो जाता है। इसलिए किसे इष्ट और किसे अनिष्ट माना जाए ?" रागान्ध व्यक्ति जिस गीत और नाटक को प्रिय और मनोझ मानता है, भोगी-विलासी व्यक्ति को जो काम-भोग मनोज्ञ, सुखद और इष्ट लगते हैं, शरीरासक्त मनुष्य जो आभरण, साजसज्जा, शृंगार प्रिय लगता है, उन्हीं के लिए वीतरागता की दृष्टि वाले राग-द्वेषरहित ज्ञानभाव में रमण करने वाले आध्यात्मिक मुनि कहते हैं-"सभी गीत विलापवत हैं, सभी नाटक विडम्बनाएँ हैं। सभी आभूषण भाररूप हैं और सभी कामभोग दुःखावह हैं।"२ रागी द्वेषी की दृष्टि बदलती रहती है
वस्तुतः रागी या द्वेषी दृष्टि वाले व्यक्ति की दृष्टि बदलती है, वह प्रियता-अप्रियता या इष्ट-अनिष्ट के दायरे में ही चक्कर काटता रहता है, उनसे ऊपर नहीं उठ पाता है। ___ एक व्यक्ति अभी जीवित है। किसी का सम्बन्धी, कुटुम्बी या प्रियजन भी है। उसके साथ वर्तमान में पूरा सद्भाव या लगाव है तो वह प्रिय लगता है, परन्तु कदाचित् किसी कारणवश अकस्मात् उसकी मृत्यु हो जाए तो मृत शरीर के प्रति १. अखण्डज्योति फरवरी १९७६ में प्रकाशित 'रागद्वेषरहित संतुलित स्नेह सद्भाव' शीर्षक लेख से
भावांशग्रहण । २. (क) न रम्यं नारम्य प्रकृति-गुणतो वस्तु किमपि ।
प्रियत्वं वस्तूनां भवति, खलु ग्राहकवशात् ॥ (ख) तानेव अर्थान् द्विषतः तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्ट, न विद्यते किंचिदिष्ट या ॥
-प्रशमरति ५२ (ग) सव्वं विलंबियं गीर्य, सव्यं नर्से विडंबियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहायहा ॥
-उत्तराध्ययन १३/१६
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