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१६० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) सामान्यापेक्षा से कर्मबन्ध एक : विशेषापेक्षा से दो प्रकार
सामान्य की अपेक्षा से कर्मबन्ध के भेद नहीं किये जा सकते। इस दृष्टि से कर्मबन्ध एक ही प्रकार का है। परन्तु विशेष की अपेक्षा से बन्ध दो प्रकार का हैद्रव्यबन्ध और भावबन्धा२ द्रव्यबन्ध, भावबन्ध का परिष्कृत स्वरूप
कार्मण वर्गणाओं का कार्मण वर्गणाओं के साथ, जीव-प्रदेशों के साथ जो बंध होता है; अर्थात्-ज्ञानावरणीयादि कर्म-पुद्गलों के प्रदेश जीव के साथ मिलते हैं, उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं। इसी प्रकार जीव के (शुभ-अशुभ) भावों का या उसके उपयोग (परिणाम) का बाह्य पदार्थों के साथ जो बंध होता है, उसे भावबन्ध कहते हैं। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के अनुसार “आत्मा के जिस विकारीभाव से (मिथ्यात्वरागादि की परिणतिरूप या अशुद्ध चेतन-भाव के क्रोधादि परिणामस्वरूप जिस भाव से) कर्म बंधते हैं, वह भावबन्ध है, और भावबन्ध के निमित्त से आत्मप्रदेश और कर्मपरमाणुओं का परस्पर सम्बद्ध होना द्रव्यबन्ध है।" आशय यह है कि “आत्मा के अशुद्ध परिणाम (अध्यवसाय)-मोह, राग-द्वेष और क्रोधादि भाव, जिनसे ज्ञानावरणीयादि कर्म के योग्य पुद्गल-परमाणु आते हैं, भावबन्ध कहलाता है।" प्रवचनसार में भी इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है कि जो उपयोगस्वरूप जीव विविध विषयों को प्राप्त कर राग, द्वेष, मोह आदि करता है, वही उससे बंधता है। यह भावबन्धरूप जीवबन्ध है।३ भावबन्ध की उत्पत्ति का कारण
भावबन्ध को स्पष्टरूप से समझ लें। इष्ट-अनिष्टरूप या ग्राह्य-त्याज्यरूप द्वन्द्वों से युक्त चित्त का इन पदार्थों (सजीव-निर्जीव पदार्थों) के प्रति जो स्वामित्व, कर्तृत्व, मोक्तृत्व भाव होता है, वही इसका (भावबन्ध का) स्रोत है। पुत्र, मित्र, कलत्र आदि
चेतन पदार्थों के प्रति, अथवा धन, धान्य, वस्त्र, गृह, वाहन आदि अचेतन पदार्थों 5 प्रति चित्त की यह ग्रन्थि (रागद्वेषादि परिणामों की गांठ) इतनी दृढ़ होती है कि इन दार्थों में हानि, वृद्धि, क्षति, अपहरण, रोग, निरोगता आदि के रूप में कुछ भी रिवर्तन होने पर चित्त में तदनुरूप परिवर्तन होने लगता है। हानि, क्षति, बीमारी, पहरण तथा चिन्ता आदि प्रसंगों पर शोक; एवं वृद्धि, स्वस्थता, निश्चिन्तता, ‘एगे बंधे।
-ठाणांगसूत्र, स्थान १ तत्त्वार्थ वार्तिक २/१०/२ पृ. १२४ (क) आत्म-कर्मणोरन्योन्यानप्रवेशात्मको (द्रव्य) बन्धः। -सर्वार्थसिद्धि १/४, पृ. १४ (ख) 'क्रोधादि-परिणाम-वशीकृतो भावबन्धः । -तत्त्वार्थवार्तिक २/१0, पृ. १२४ (ग) बज्झदि कम्म जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो। -द्रव्यसंग्रह टीका गा. ३२ (घ) उवओगमओ जीवो, मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि ।
पप्पा विविध विसये, जीवेहिं पुण तेहिं संबंधो । -प्रवचनसार २/८३, १७५
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