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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २१९ कलाचार्य, शिक्षक, धर्माचार्य या धर्मगुरु आदि के प्रति अविनय, अभक्ति आदि करना, (२) अक्षमा-क्षमाशीलता न होना, जरा-जरा-सी बात पर क्रोध, रोष, आवेश, कलह आदि करना, क्षमा न करना, (३) क्रूरता-मन में क्रूरता करना, दीन-दुःखी, पीड़ित को देखकर भी दया, करुणा एवं अनुकम्पा न लाना, (४) अव्रत-अविरति-व्रत, प्रत्याख्यान या त्याग न करना, (५) अयोग-प्रवृत्ति-संयम-योग में प्रवृत न होना, शुभयोग मे प्रवृत न होना, (६) कषाय-युक्त होना-क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायों की मन्दता न होना, तीव्रता ही अधिक-अधिक होते जाना, (७) दानवृत्ति का अभावकृपणता, और (८) धर्म पर दृढ़ता न रखना, बात-बात में धर्म से डिग (फिसल) जाना।
जीवन में अशान्ति का कारण असातावेदनीय बन्ध आज अधिकांश मनुष्यों के जीवन में अशान्ति, असाता तथा मानसिक चिन्ता अधिक मालम होती है। गहराई से उसका कारण सोचें तो स्पष्ट ज्ञात होगा कि या तो गुरुजनों के प्रति विनय, भक्ति एवं श्रद्धा का अभाव है, क्षमा को तो प्रायः ताक में रख दिया है, हृदय में दया, करुणा सूख गई है, स्वार्थान्धता का बोलबाला है। व्रत संयम, नियम और कषायविजय में तो बहुत ही पीछे हैं। व्रत-नियम का तो नाम ही सुहाता नहीं है। निःस्वार्थ भाव से दान भी करने की रुचि नहीं होती। थोड़ा-सा देकर बदले में नामना-कामना एवं कीर्ति तथा प्रतिष्ठा की आशा लगी रहती है। धर्म पर दृढ़ता नहीं रहती। अन्याय-अनीति से या अनैतिक मार्गों से धन कमाने के लिए जितनी दौड़-धूप की जाती है, उसका शतांश पुरुषार्थ भी धर्माचरण, आत्मशान्ति, आत्मविकास एवं आत्मशुद्धि के लिए नहीं होता। ऐसी स्थिति में प्रायः असातावेदनीय का बन्ध होता है।
... असातावेदनीय बन्ध का विपाक आठ दुःखद संवेदनाओं के रूप में असातावेदनीय कर्म-बन्ध के पूर्वोक्त कारणों में से किसी भी कारणभूत क्रिया के विपाक (फल) के रूप में आठ प्रकार की दुःखद-संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं-(१) कर्ण-कटु कर्कश स्वर अपने या दूसरे लोगों से सुनने को मिलते हैं, (२) स्व-पर का अमनोज्ञ या सुन्दरतारहित रूप देखने को मिलता है, (३) अमनोज्ञ गन्धों की किसी भी निमित्त से प्राप्ति होती है, (४) बेस्वाद, रूखा सूखा या अत्यन्त खट्टा, खारा, नीरस या बासी भोजनादि प्राप्त होता है, (५) अमनोज्ञ, कठोर, कर्कश (खुर्दरा) और दुःखद संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श की प्राप्ति होती है। (६) अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियाँ, चिन्ताएँ, तनाव, उद्विग्नता आदि होती हैं। (७) निन्दा, गाली, अपमानजक १. (क) कर्मग्रन्थ भा. १, गा. ५५
(ख) आत्मतत्व विचार पृ. ३१५ २. आत्मतत्त्व विचार से पृ. ३१५
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