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२४८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) मोहमूढ करने की शक्ति होती है।" "यद्यपि द्रव्यदृष्टि से कर्म एक ही प्रकार का होता है. तथापि पर्यायों की अपेक्षा उसके मूल और उत्तर प्रकृतियों के रूप में अनेक प्रकार होने में कोई विरोध नहीं है।"१ ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ : स्वरूप, प्रकार और भेद ___ आठ मूलप्रकृतियों में सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म है। जिसके द्वारा वस्तु का विशेष बोध यानी साकार उपयोग हो उसे ज्ञान कहते हैं। यानी नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि सहित जगत् के समस्त पदार्थों का विशेष बोध जिसके द्वारा हो, उसे ज्ञान कहते हैं, उसका जिसके (मिथ्यात्वादि हेतुओं) द्वारा आच्छादन हो, उसे ज्ञानावरणीय कहा गया है। ज्ञानावरणीय कर्म की पांच उत्तर प्रकृतियाँ हैं-२ (१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनःपर्यायज्ञानावरणीय और (५) केवलज्ञानावरणीय। वैसे तो आत्मा की ज्ञानशक्ति अनन्त है, परन्तु समस्त संसारी जीवों में वह अनन्त (असीम) ज्ञान नहीं होता है। किसी जीव का ज्ञान अत्यधिक आवृत होता है, किसी का कम। पूर्णरूप से ज्ञान का आवरण जल हट जाता है, तब केवलज्ञान प्रकट होता है, वह ज्ञान अनन्त होता है। संसार के प्रत्येक जीव में ज्ञान की तरतमता (न्यूनाधिकता) रहती है। एक ही मनुष्य जाति को लें-उसमें किसी के ज्ञान का आवरण कम, किसी के अधिक, किसी के सर्वाधिक होता है। इसी तरतमता की अपेक्षा से ज्ञान के निश्चित भेद नहीं किये जा सकते, किन्तु उन सबका सामान्य रूपों में वर्गीकरण करके आगमों और ग्रन्थों में ज्ञान के मुख्य पांच भेद माने गए हैं-(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यायज्ञान और (५) केवलज्ञान। अतः ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ पांच हैं।३ इन पांच ज्ञानों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है-(१) प्रत्यक्ष और (२) परीक्षा पांचों इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है या दूसरों को ज्ञान (बोध) कराया जाता है, उसे परोक्ष कहते हैं। परोक्ष ज्ञान के दो प्रकार हैं-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन प्रकार हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान।
१. (क) तत्त्वार्थवार्तिक (अकलंकभट्ट) से, ८/४/७
(ख) धवला पु. १२, खण्ड ४, भा. ८ सू. ११ (ग) वही, ८/४/९-१४
(घ) सर्वार्थसिद्धि ८/४ २. (क) णाणावरणं पंचविह, सुर्य आभिणिवोहियं । ____ ओहिनाणं च तइयं मणनाणं च केवलं ॥
-उत्तराध्ययन ३३/४ (ख) मति-श्रुतावधि-मनःपर्याय-केवलानि ज्ञानम् ।
-तत्त्वार्य ८/४ __(ग) कर्मग्रन्थ भा. १, गा. ४ ३. मइ-सुय-ओहि-मण-केवलाण आवरणं भवे पदम। -पंचसंग्रह (श्ये) बन्धक प्ररूपणा गा. ३ ४. (क) आधे परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।
-तत्त्वार्थसूत्र १/११-१२ (ख) दुविहे णाणे पण्णते, त जहा-पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव । -स्थानांग, ठा. २, उ. १
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