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२८० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) दर्शन शब्द का पारिभाषिक अर्थ, दर्शनावरणीय कर्म-स्वरूप ___ दर्शनावरणीय कर्म में जो 'दर्शन' शब्द है, उसके शब्दकोष में अनेकों अर्थ होते हुए भी यहाँ वह पारिभाषिक शब्द है। वह यहाँ सामान्य बोध-निराकार ज्ञान का परिचायक है। पंचसंग्रह के अनुसार-‘पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होता है। अतः पदार्थ के विशेष अंश को ग्रहण न करके जो केवल सामान्य अंश का निर्विकल्प रूप से ग्रहण करता है, उसे जैन सिद्धान्त में दर्शन कहा गया है।' अथवा 'कम्मपयडी' के अनुसार-‘बाह्य पदार्थों के विशेष रूप का ग्रहण न करके, तथा पदार्थ के जाति, गुण, क्रियादि प्रकार का विकल्प न करके केवल उसके स्वरूप की सत्ता का अवभास (बोध) होना दर्शन है।' आत्मा की इस दर्शनगुणशक्ति (सामान्यबोधरूपः शक्ति) को आच्छादित करने वाले कमों को दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है।'
सामान्यरूप से देखना दर्शन है। जानने और देखने में अन्तर है। वस्तु को जानने से पहले देखना होता है। देखने के पश्चात् जानना होता है। नाक से सूंघने से, जीभ से स्वाद लेने से, कान से सनने से और त्वचा से वस्त के स्पर्श से घस्त को जानने से पहले सामान्य रूप से देखना होता है। सारांश यह है कि इन पांचों इन्द्रियों से वस्तु को (विशेष रूप से) जानने से पहले सामान्यरूप में देखना ही 'दर्शन' है।
बोध के सामान्य और विशेष दो रूप होते हैं। पदार्थों के विशेष धर्मों की-उसकी जाति, गुण, क्रिया आदि की जानकारी विशेष बोध है और पदार्थों का सामान्य-सा, जरा-सा ('यह कुछ है या यह घड़ा, गाय, घोड़ा आदि है, इतना-सा) बोध सामान्य बोध है। विशेष बोध को शास्त्रीय भाषा में ज्ञान और सामान्य बोध को 'दर्शन' कहते हैं। उपयोग के साकार और अनाकार दो विभाग किये जाते हैं, जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेष रूप से जानता है, वह साकार और सामान्य रूप से जानता है, वह निराकार, अनाकार या निर्विकल्प बोध कहलाता है। अतः 'दर्शन' का यहाँ अर्थ हैजो ग्राह्य वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है उसे निराकार, अनाकार या निर्विकल्प भी कहा जाता है। स्पष्ट रूप से कहें तो-वस्तु के सामान्य बोध का यहाँ अर्थ है-पदार्थों की सभी अवस्थाओं का बोध न होकर किसी एक अवस्था का बोध होना। एक उदाहरण द्वारा इसे समझिये-मान लो, सामने हीराचन्द नाम का व्यक्ति खड़ा है, कुछ दूरी पर। सर्वप्रथम बोध होगा कि यह मनुष्य है। यही सामान्य बोध दर्शन है। फिर उस व्यक्ति के आकार, रूप, रंग, पहनावे आदि से उसके हीराचंद होने
१. (क) जं सामण्णग्गहण भावाणं नेव कटु आयारं । अविसेसिऊण अत्थे, दसणमिदि वुच्चए समए ॥
-पंचसंग्रह १/१३८ (ख) बाह्यपदार्थान् अविशेष्य जाति-क्रिया-गुण-प्रकारैरविकल्प्य स्वरूप-सत्ताऽवभासन दर्शनमित्यर्थः।
-कम्मपयडी, टीका ४३ (ग) दर्शनमावृणोति, आत्मनः दर्शनगुण आप्रियतेऽनेनेति वा दर्शनावरणीयम्। .
-तत्त्वार्थसूत्र भाष्य ८/६
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