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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-२ २८१ का बोध होना, यह विशेष बोध (ज्ञान) है। इसी प्रकार सामने घड़ी पड़ी है, सर्वप्रथम इसका बोध होगा-यह घड़ी है। उसके आकार, प्रकार, रंग, क्वालिटी, निर्माणस्थान आदि बातों की जानकारी उस समय नहीं होती। अतः केवल इतना ही जानना कि यह घड़ी है, सामान्यबोध (दर्शन) है, फिर वह बोध विशाल रूप धारण कर ले, विशेष रूप से जान ले तो यह बोध दर्शन न होकर ज्ञान कहलाएगा।
अतः जो कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डालकर, उसे प्रकट होने से रोकता है, सामान्य बोध पर पर्दा बनकर छा जाता है, जीव को पदार्थों की साधारण जानकारी भी नहीं होने देता, वह दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म की उपमा द्वारपाल से दी गई है। जिस प्रकार शासक के दर्शन के लिये उत्सुक व्यक्ति को. द्वारपाल रोक देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डाल कर वस्तु के सामान्य धर्म का दर्शन (बोध) होने से रोक देता है, दर्शन शक्ति को प्रकट नहीं होने देता, वह दर्शनावरणीय कर्म है।२
. दर्शनावरणीय कर्म का समस्त कथन प्रायः ज्ञानावरणीय कर्म के तुल्य दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति को कैसे आच्छादित करता है? दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कौन-कौन से कारण हैं? दर्शनावरणीय कर्म का फलभोग (अनुभव) कैसे-कैसे होता है? इत्यादि सब बातों की जानकारी ज्ञानावरणीय कर्म के प्रकरण में दी जा चुकी है। क्योंकि दोनों ही कर्म ज्ञान को आवृत-आच्छादित करते हैं। ज्ञान और दर्शन ये दोनों ही आत्मा के गुण हैं। एक विशेष बोध कराने वाला है, दूसरा सामान्य बोध। इसलिए दोनों की सभी बातें प्रायः समान हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ ज्ञान शब्द का प्रयोग है, यहाँ दर्शन शब्द का। दोनों की उत्तर-प्रकृतियों के भेदों में अन्तर अवश्य है। वैसे दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारणों के विषय में हमने इसी खण्ड के १५वें लेख में विश्लेषण किया है।३
दर्शनावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ और उनका स्वरूप - यों तो ज्ञानावरणीय कर्म की तरह दर्शनावरणीय कर्म के असंख्यात भेद हो सकते
हैं। किन्तु सुगमता से उन असंख्यात भेदों को समझने और उनका समावेश संक्षेप में करने हेतु निम्नलिखित नौ भेद किये हैं। अर्थात्-दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ
१. (क) जैनदृष्टिए कर्म से भावांश ग्रहण, पृ. ११२
(ख) ज्ञान का अमृत से, पृ. २५९, २६० २. (क) ज्ञान का अमृत पृ. २६०
(ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. २१
(ग) सर्वार्थसिद्धि ८/३ ३. (क) ज्ञान का अमृत से भावांश ग्रहण, पृ. २६० (ख) दर्शनावरण कर्मबन्ध आदि के विषय में देखें-मूल प्रकृतियों के स्वभाव, स्वरूप और
कारण, लेख में
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