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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप' और कारण-२ २८३ गन्ध, रस और स्पर्श वाले) पदार्थों का कुछ मर्यादा को लिये हुए, जो सामान्य बोध होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं। दूसरे शब्दों में, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा में आत्मा द्वारा रूपी द्रव्यों का सामान्य अवबोध, अवधिदर्शन है। जो कर्म अवधिदर्शन को आच्छादित कर देता है, उसे अवधिदर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
(४) केवलदर्शनावरणीय कर्म-केवलदर्शनावरण कर्म के क्षय होने पर आत्मा द्वारा जगत् के समस्त त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती पदार्थों का एक साथ (युगपत्) जो सामान्य बोध होता है, वह केवलदर्शन है। संक्षेप में, सर्वद्रव्यों के सामान्य अंश का अवबोध केवलदर्शन है। इस केवलदर्शन को आवृत करने, रोकने वाली कर्मशक्ति का नाम केवलदर्शनावरणीय कर्म है। यह कर्म जीव की केवलदर्शनशक्ति को पर्दा बनकर ढक देता है।
मनः पर्याय-दर्शनावरण कर्म क्यों नहीं? अवधिदर्शन की तरह मनःपर्यायदर्शन न मानने का कारण यह है कि मनः पर्यायज्ञान क्षयोपशम के प्रभाव से पदार्थों के विशेष धर्मों को ही ग्रहण करते हुए उत्पन्न होता है, सामान्य धर्म को ग्रहण करते हुए नहीं। अर्थात्-मनःपर्यायज्ञान पदार्थों के सामान्य धर्मों को अपना विषय नहीं बनाता। यह सत्य है कि मनःपर्यायज्ञान का ऋजुमति नामक भेद मनोगत सामान्य भावों को जानता है, किन्तु ऋजुमति के सामान्यग्राही होने का इतना ही मतलब है कि वह जानता तो वस्तुगत विशेष धर्मों को है, परन्तु मनःपर्यायज्ञान के दूसरे भेद विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता है। इसलिए दर्शन मनःपर्यायज्ञान का न होने से मनःपर्यायदर्शनावरण नामक भेद की आवश्यकता नहीं रहती।
दर्शन के आवरणरूप निद्रा के पांच प्रकार प्राणी निद्राधीन होता है, तब दर्शन अवश्य रुक जाता है। सोया हुआ मानव सामान्य बोध नहीं प्राप्त कर सकता, यह हम सभी जानते हैं, क्योंकि निद्रा से इन्द्रियों के विषय रुक जाते हैं और इसी से समस्त दर्शन का घात हो जाता है। इसी कारण निद्रा आदि पांच दर्शनावरणीय कर्म के अंग के रूप में माने गए हैं। . ... निद्रा के पांच प्रकार हैं-(१) निद्रा-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी नींद
आए कि सोये हुए मनुष्य को आसानी से जगाया जा सके, जो हल्की सी आवाज देने पर जाग जाए अथवा कोई नाम से बुलाए या पास में आवाज आए तो तुरंत जाग
१. (क) कर्म प्रकृति से पृ. १२
(ख) जैनदृष्टिए कर्म से पृ. ११५ भावांश ग्रहण
(ग) ज्ञान का अमृत से पृ. २६१ २. (क) कर्मप्रकृति, पृ. १२
(ख) ज्ञान का अमृत से पृ. २६१-२६२
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