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२७२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ही होते हैं। शेष तीनों ज्ञान एक दूसरे को छोड़ कर भी रह सकते हैं। जब तीन ज्ञान हों तो मति, श्रुत और अवधिज्ञान अथवा मति, श्रुत और मनःपर्यायज्ञान होते हैं; क्योंकि तीन ज्ञानों का सम्भव अपूर्ण अवस्था में ही होता है; चाहे उस समय अवधिज्ञान हो या मनःपर्यायज्ञान, पर मति, श्रुत ये दो ज्ञान तो अवश्य होते हैं। जब चार ज्ञान होते हैं, तब मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यायज्ञान होंगे, क्योंकि ये चार ज्ञान अपूर्ण-अवस्थाभावी होने से एक साथ हो सकते हैं. जैसे गौतमस्वामी में, तथा केशीश्रमण में चार ज्ञान थे। केवलज्ञान का अन्य किसी ज्ञान के साथ साहचर्य इसलिए नहीं है कि वह पूर्ण-अवस्थाभावी है, जबकि शेष ज्ञान अपूर्ण-अवस्थाभावी हैं। पूर्णता और अपूर्णता का परस्पर विरोध होने से ये दो अवस्थाएँ आत्मा में नहीं होती। दो, तीन या चार ज्ञानों का एक साथ एक आत्मा में रहना संभव कहा गया, वह भी शक्ति की अपेक्षा से, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं। निष्कर्ष यह है कि एक साथ एक आत्मा में अधिक से अधिक चार ज्ञान शक्तियाँ हों, तब भी एक समय में कोई एक ही शक्ति अपना जानने का काम करती है, अन्य शक्तियाँ उस समय निष्क्रिय-सी रहती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के पांच ही भेद क्यों ?
प्रश्न होता है, ज्ञान के ५ भेदों के अलावा अज्ञान के भी तीन भेद हैं, इस अपेक्षा से ज्ञानावरण कर्म के आठ भेद होने चाहिए, पांच ही क्यों? धवला में इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है कि मतिज्ञान आदि ५ ज्ञानों के अलावा ज्ञान के अन्य भेद नहीं होते; इसलिए उनके आवरण करने वाले कर्म भी पांच प्रकार से अधिक नहीं होते। जो तीन अज्ञान (मिथ्याज्ञानरूप) कुमतिज्ञान (मतिअज्ञान), कुश्रुतज्ञान (श्रुत-अज्ञान) और विभंगज्ञान (कु-अवधिज्ञान) हैं, उनका अन्तर्भाव क्रमशः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में हो जाता है। क्योंकि इन तीनों की विपरीतता या अज्ञान लौकिक दृष्टि की अपेक्षा नहीं माना. गया है; अपितु आध्यात्मिक दृष्टि से ही है। लौकिक दृष्टि से तो विशेष ज्ञानी या विशेषज्ञ (स्पेशलिष्ट-Specialists) भी आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञानी या मिथ्याज्ञानी हो सकते हैं।२ ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के विशिष्ट कारण
यद्यपि ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारणों का सामान्यरूप से इसी खण्ड के १५वें लेख में उल्लेख किया गया है, तथापि विशदरूप से ६ कारणों पर विवेचन यहाँ दे रहे
१. (क) एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः ।
-तत्त्वार्यसूत्र १/३१ (ख) ज्ञान का अमृत से साभारग्रहण पृ. २३४
(ग) जीवाभिगम, प्रतिपत्ति १ सू. ४१ २. (क) धवला पु. ७, खं. २, भा. १ सू. ४५
(ख) तत्त्वार्थसूत्र सू. १/३३ पर विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. ६५-६६ .
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