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२७0 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) लब्धि, विपुलमति (ज्ञान)-लब्धि, चारणलब्धि (जंघाचरण-विद्याचरणलब्धि), आशीविष और केवलीलब्धि (अथवा केवलज्ञान-लब्धि)। इन और ऐसी ही अन्य लब्धियों में सर्वोत्कृष्ट, निर्दोष तथा विशुद्धतम लब्धि केवलज्ञान-लब्धि है। जो केवलज्ञान की उत्कृष्ट आराधना से तथा चार घातिकर्मों के क्षय से ही प्राप्त होती है। यह लब्धि आत्मिक जीवन की सर्वोच्चता का समुज्ज्वल प्रतीक है। इस लब्धि के प्रभाव से केवलज्ञानी त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को हस्तामलकवत् जान और देख सकता है। केवली द्वारा केवलीसमुद्घात क्यों और उसकी प्रक्रिया कैसी ?
जब केवलज्ञानी भगवान् की आयु स्वल्प होती है, और वेदनीयादि तीन कर्मों (भवोपग्राही कर्मों) के भोगकाल की अवधि अधिक होती है, और अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करना होता है, तब केवलज्ञानी पूर्वोक्त तीन कर्मों की स्थिति को आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिए समुद्घात करता है, जिसे केवली-समुद्घात कहते हैं। वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीयादि कर्म-परमाणुओं को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर उसकी प्रबलतापूर्वक निर्जरा (कर्मक्षय) करता है, उसे समुद्घात कहते हैं। 'समुद्घात' जैनकर्मविज्ञान का पारिभाषिक शब्द है। ऐसे समुद्घात सात प्रकार के हैं। उनमें से सातवां केवलीसमुद्घात है। अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली भगवान् के द्वारा किये जाने वाले समुद्घात को केवली-समुद्घात कहते हैं।
केवलि-समुद्घात की प्रक्रिया इस प्रकार है-केवलिसमुद्घात में कुल ८ समय लगते हैं। प्रथम समय में केवली भगवान् आत्मप्रदेशों की रचना दण्डाकार करते हैं, जो मोटाई में शरीर-प्रमाण और लम्बाई में ऊपर और नीचे से लोकान्त-पर्यन्त विस्तृत होता है। दूसरे समय में, वे उसी दण्ड को पूर्व और पश्चिम तथा उत्तर और दक्षिण में फैलाते हैं। फिर उस दण्ड का लोकपर्यन्त विस्तृत एक कपाट बनाते हैं। तीसरे समय में, दक्षिण और उत्तर, अथवा पूर्व और पश्चिम दिशा में लोकान्तपर्यन्त आत्म-प्रदेशों को फैला कर उसी कपाट को मथानी के रूप में ले आता है। ऐसा करने से लोक का अधिकांश भाग केवली के आत्म-प्रदेशों से व्याप्त हो जाता है, फिर भी मथानी की तरह अन्तराल-प्रदेश खाली रहते हैं। चौथे समय में, मथानी के अन्तराल प्रदेशों को पूर्ण करता हुआ समग्र लोकाकाश को आत्म-प्रदेशों से व्याप्त कर डालता है। अब लोकाकाश और आत्म-प्रदेश बराबर हो जाते हैं, फलतः आत्मप्रदेशों के फैलाव से सारा लोकाकाश पूर्ण हो जाता है। फिर पांचवें, छठे, सातवें और आठवें समय में विपरीत क्रम से वह केवलज्ञानी प्रभु अपने आत्मप्रदेशों का संकोच करते (सिकोड़ते)
१. ज्ञान का अमृत से, सारांशग्रहण पृ. २३०-२३२ २. सातों समुद्घातों का विशेष स्वरूपादि जानने के लिए देखें-जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भा. २
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