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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २७१ हैं। इस क्रम से आठवें समय में समस्त आत्मप्रदेश पुनः शरीरस्थ हो जाते हैं। यही केवलिसमुद्घात की प्रक्रिया है। इससे वेदनीय कर्म का भोग-काल आयुष्यकर्म के भोगकाल के समानकालिक बन जाता है। वेदनीयादि तीन कर्मों के भोगसमय को आयुष्यकर्म के भोग-समय के समान बनाने की क्षमता सिर्फ केवली भगवान् में ही पाई जाती है।
केवलज्ञान की उपस्थिति में अन्य ज्ञानों का सद्भाव या असद्भाव ? कुछ आचार्यों का कथन है कि केवलज्ञान के समय भी मति आदि चारों ज्ञानशक्तियाँ होती हैं, पर वे सूर्यप्रकाश के समय ग्रह, नक्षत्र आदि के प्रकाश की तरह केवलज्ञान के प्रकाश से अभिभूत (निस्तेज या फीके) हो जाती हैं। अतः अपना-अपना ज्ञानरूप कार्य नहीं कर सकतीं। इसलिए शक्तियाँ होने पर भी केवलज्ञान के प्रकट हो जाने पर मति आदि ज्ञानपर्याय नहीं होते। तत्त्वार्थसत्रकार के मतानुसार-केवलज्ञान अकेला ही रहता है। वस्तुतः केवलज्ञान आत्मा का सम्पूर्ण ज्ञान है और ये मति आदि चारों ज्ञान इस सम्पूर्ण के अंशमात्र हैं। भाव यह है कि केवलज्ञान में ये चारों ज्ञान उसी प्रकार विलीन हो जाते हैं, जिस प्रकार महासागर में नदियाँ विलीन हो जाती हैं। __कुछ आचार्यों का कथन है कि मतिज्ञान आदि चार शक्तियाँ आत्मा में स्वाभाविक नहीं हैं, किन्तु कर्म-क्षयोपशमरूप होने से औपाधिक अर्थात् कर्म-सापेक्ष हैं। इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा अभाव (क्षय) हो जाने पर, जबकि क्षायिकरूप केवलज्ञान प्रकट होता है-वे मति आदि औपाधिक शक्तियाँ संभव ही नहीं हैं। इसलिए केवलज्ञान के समय कैवल्यशक्ति के सिवाय न तो कोई अन्य ज्ञान शक्तियाँ रहती हैं, और न उनका मतिज्ञान पर्यायरूप कार्य ही रहता है।३।।
एक साथ एक आत्मा में कितने ज्ञान और कौन-से संभव ? . तत्त्वार्थसूत्रकार एवं जीवाभिगमसूत्र के अनुसार एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक भजना से-अनियतरूप से पाये जा सकते हैं। किसी आत्मा में एक साथ एक, किसी आत्मा में एक साथ दो, किसी आत्मा में एक साथ तीन और किसी आत्मा में एक साथ चार ज्ञान तक सम्भव हैं। परन्तु पाँचों ज्ञान एक साथ किसी में भी नहीं होते। जब एक होता है तो सिर्फ केवलज्ञान समझना चाहिए। यदि दो होते हैं तो मति और श्रुतज्ञान, क्योंकि पांच ज्ञानों में से नियत सहचारी ये दो ज्ञान
१. ज्ञान का अमृत से, पृ. २३३-२३४ २. (क) ज्ञान का अमृत से पृ. २३५ , (ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन १/३१ (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. ६४/६५ ३. (क) ज्ञान का अमृत से पृ. २३५
(ख) जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण
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