________________
उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - १
२६५
अवधिज्ञान विपरीत यानी कु-अवधि - विभंग भी हो सकता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान कभी विपरीत नहीं होता, यहाँ तक कि मनःपर्यायज्ञान की विद्यमानता में मिथ्यात्व का उदय भी संभव नहीं है। अवधिज्ञान आत्मा के साथ अगले जन्म में भी जा सकता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान नहीं जा सकता, वह इहभविक है, मगर अवधिज्ञान उभयभविक भी हो सकता है। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान संयम -सापेक्ष है, संयम के अभाव में वह टिक नहीं सकता, किन्तु अवधिज्ञान को संयम की अपेक्षा नहीं है। वह देवों और नारकों को तो जन्म से ही बिना संयम के भवप्रत्यय अवधिज्ञान है।
भी होता है, वह
मनः पर्यायज्ञान के लिए नौ बातें अनिवार्य
मनःपर्यायज्ञान केवल उन्हीं मनुष्यों को होता है, जो ऋद्धिप्राप्त हों, गर्भज हों, कर्मभूमिज हों, संख्यातवर्ष की आयु वाले हों, आहारादि छह पर्याप्तियों से पर्याप्त हों, सम्यग्दृष्टि हों, सप्तम गुणस्थान वाले अप्रमत्त संयत हों । '
द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से मनःपर्यायज्ञान का विषय
मनः पर्यायज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन भेदों से चार प्रकार का होता है। द्रव्य की अपेक्षा से यह ज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के ( काययोग से ग्रहण करके मनोयोग द्वारा मन के रूप में परिणत हुए) मनोद्रव्य को जानता है । क्षेत्र की अपेक्षा से यह ज्ञान मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए संज्ञी जीवों के उक्त मनोद्रव्य को जानता है। काल की अपेक्षा से यह मनोद्रव्य की भूत और भविष्यकालीन पर्यायों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक जानता है। भाव की अपेक्षा से यह ज्ञान द्रव्यमन की चिन्तन-मनन- परिणत रूपादि अनन्त पर्यायों को जानता है । परन्तु भावमन की पर्याय मनः पर्याय ज्ञान का विषय नहीं है, क्योंकि भावमन ज्ञानरूप होता है। और ज्ञान अमूर्त है। अतः वह छद्मस्थ के ज्ञान का विषय नहीं बनता । २
मनःपर्यायज्ञान के दो भेद : ऋजुमति और विपुलमति
मनःपर्यायज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति । ३ ऋजुमति दूसरे के मन में सोचे हुए भावों (पर्यायों) को सामान्यरूप से जानता है, जबकि विपुलमति विशेषरूप से जानता है। जैसे- किसी व्यक्ति ने मन में घड़ा लाने का विचार किया, मात्र इतना जानना ऋजुमतिज्ञान है, जबकि वह ( मनश्चिन्तित ) घड़ा तांबे का है,
१. (क) ज्ञान का अमृत से पृ. २१८
(ख) इड्ढीपत्त - अप्पमत्त - संजय-सम्मदिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिअ-गब्भ वक्कतिअ मस्सार्ण मणपज्जव-नाणं सेमुप्पज्जइ । - नन्दीसूत्र (मनःपर्यायज्ञानाधिकार) (ग) ऋद्धिप्राप्त संयत वह होता है जो अतिशायिनी बुद्धि से युक्त हो, अर्थात् - जो कोष्ठकबुद्धि, पदानुसारिणी लब्धि और बीजबुद्धि से सम्पन्न हो। -सं.
२. ज्ञान का अमृत से पृ. २१६
३. मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं. -उज्जुमति चेव विपुलमति चेव ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- ठणांग ठा. २ उ १
www.jainelibrary.org