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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २६७ क्षपक-श्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञानी हो जाता है और संसार से मुक्त भी हो जाता है। __स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैसे-किसी व्यक्ति ने मन में घड़े का चिन्तन किया, ऐसी स्थिति में ऋजुमति इतना ही जानता है कि इसने घड़े का चिन्तन किया। जबकि विपुलमति उस घड़े के सम्बन्ध में विशेष स्पष्ट जानता है कि वह घड़ा ताँबे का है, उसका रंग लाल है, वह अमुक नगर में बना हुआ है, उसमें ४० किलो पानी आ सकता है, इस प्रकार विपुलमति अधिक स्पष्टता से जान लेता है। अर्थात्-ऋजुमति के ज्ञान में सामान्य स्पष्टता होती है, जबकि विपुलमति के ज्ञान में विशेष स्पष्टता होती है। विपुलमति में पर्यायों की गणना भी अधिक होती है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का क्षेत्र भी ढाई अंगुल अधिक होता है।'
इन सभी प्रकार के मनःपर्यायज्ञानों को आवृत-आच्छादित करने वाला कर्म मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है।
महामहिम अनगार गणधर इन्द्रभूति गौतम मनःपर्यायज्ञानी थे। राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णित मुनिराज केशीश्रमण मनःपर्यायज्ञानी थे, जिन्होंने श्वेतम्बिकानरेश घोर नास्तिक प्रदेशी राजा को मनःपर्यायज्ञान के बल से उसके मन में चल रहे विचारों को जानकर, उसके प्रश्नों का यथोचित समाधान करके आस्तिक एवं रमणीय बनाया। मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम होने पर इन्हें मनःपर्यायज्ञान प्राप्त हुआ था।२ . .. मनोविज्ञान, मनोविज्ञानी तथा मनःपर्यायज्ञान-मनःपर्यायज्ञानी में महान् अन्तर .. याद रखें-मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक तथा मनःपर्यायज्ञान और मनः पर्यायज्ञानी में जमीन-आसमान का सा अन्तर है। मनोविज्ञान श्रुतज्ञान पर आधारित है। मनोवैज्ञानिक सामने वाले व्यक्ति के जीवन की घटना सुनकर, उसकी मुखमुद्रा, हावभाव मुख एवं आँख की चेष्टाओं तथा शरीर और मुख आदि पर आये तनावों, या परिवर्तनों आदि पर से उसके मनोगत भावों का अनुमान लगाता है। कहा भी है
आकारैरिंगितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन ।
नेत्र-वक्त्र-विकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ .. आकृति, इंगित, गति (चाल-ढाल), चेष्टा, भाषण तथा नेत्र और मुख के विकारों से अन्तर्गत मन परिलक्षित हो जाता है, यानी मनोभाव जाने जा सकते हैं। ___ जो मनोवैज्ञानिक जितना अनुभवी और अभ्यासी होगा, उसका अनुमान उतना ही सच्चा निकलेगा। एक प्रकार से यह कर्मजाबुद्धि का परिणाम है। मनःपर्यायज्ञान
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ विवेचन (मरुधर केशरीजी) से पृ. ५४
(ख) जैनदृष्टिए कर्म से पृ. १०७ २. ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. २२८
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