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२५६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
आदि होते हैं। 'नव पदार्थ ज्ञान सार' में विपाक की दृष्टि से इनके १० भेद बताये हैं- (१) श्रवण-शक्ति का अभाव, (२) सुनने से प्राप्त होने वाले ज्ञान की अनुपलब्धि, (३) दृष्टिशक्ति का अभाव, (४) दृश्यज्ञान की अनुपलब्धि, (५) गन्ध - ग्रहणशक्ति क अभाव, (६) गन्ध सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, (७) स्वाद - ग्रहण करने की शक्ति का अभाव, (८) स्वाद सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, (९) स्पर्श-ग्रहण क्षमता का अभाव और (90) स्पर्श सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि | '
मतिज्ञान : सम्यग् और मिथ्या; बन्धकारण समान
यद्यपि पांचों इन्द्रियों और मन से जो ज्ञान सम्यक्त्व युक्त एवं यथार्थ रूप से होता है, उसे ही मतिज्ञान कहा जाता है, इसके विपरीत जो ज्ञान इन्हीं से अयथार्थ रूप से सम्यक्त्व-रहित यानी मिथ्यात्वयुक्त होने से होता है, उसे मति- अज्ञान कहा जाता है। यह अन्तर समझ लेना चाहिए। बन्ध का कारण दोनों में समान है । २
श्रुतज्ञान और श्रुतज्ञानावरणीय : स्वरूप और लक्षण
शब्द को सुनकर जो अर्थ का ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं, अथवा इन्द्रिय और मन की सहायता से शास्त्रों को पढ़ने और सुनने से जो बोध होता है, उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान के अनन्तर शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से यह ज्ञान होता है। द्रव्यसंग्रह के अनुसार- श्रुतज्ञान का लक्षण है - श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो मूर्तिक- अमूर्तिक वस्तु को लोक तथा अलोक को व्याप्ति - ज्ञानरूप से अस्पष्ट जानता है; अथवा वाच्य वाचकं भावस्कन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण करने वाला इन्द्रिय-मन - कारणक ज्ञान श्रुतज्ञान है। जैसे- घट शब्द को सुनने या आँख से देखने पर उसके बनाने वाले तथा उसके रंग-रूप आदि तत्सम्बन्धित विभिन्न विषयों की विचारणा श्रुतज्ञान से की जाती है। श्रुतज्ञान के १४ या २० भेद आगमों एवं ग्रन्थों में बताये गए हैं। सामान्यतया श्रुतज्ञान का आवरण करने वाले कर्म को श्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं। विशेषतः श्रुतज्ञान के जो १४ या २० भेद कहे हैं, उनको आवृत करने वाले कर्मों को भी सामान्यरूप से श्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं । ३
१. (क) मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता इत्यनर्थान्तरम् । (ख) ईहा अपोह - वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा ।
सन्ना सई, मई पन्ना, सव्यं आभिणिबोहिअं || (ग) नवपदार्थज्ञानसार से पृ. २३६
२. कर्मप्रकृति से भावांशग्रहण, पृ. ५
३. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधर केशरीजी) से पृ. १६-१७
(ख) कर्मप्रकृति से पृ. ६ (ग) श्रुतज्ञानावरण-क्षयोपशमात् तत् श्रुतज्ञानं भण्यते ।
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- तत्त्वार्थसूत्र
- नंदीसूत्र ८०
'मूर्तामूर्तवस्तु लोकालोक व्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति - द्रव्य संग्रह टीका गा. ५
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