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२६२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
द्रव्य से-अवधिज्ञानी कम से कम अनन्त रूपी द्रव्यों को और अधिक से अधिक सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है।
क्षेत्र से-अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र के द्रव्यों को तथा उत्कृष्टतः लोक के क्षेत्रगत रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है। अलोक के भी असंख्यात खण्ड करके जान-देख सकता है। ___ काल से-अवधिज्ञानी जघन्यतः आवलिका के असंख्यातवें भाग में आगत रूपी-द्रव्यों को जानता-देखता है; उत्कृष्टतः असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण अतीत अनागत काल के रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है।
भाव से-जघन्यतः वह रूपी द्रव्य की अनन्त पर्यायों को तथा उत्कृष्टतः भी अनन्त पर्यायों को जानता-देखता है। आनन्द, महाशतक आदि श्रावकों को ऐसा ही मर्यादित अवधिज्ञान प्राप्त हो गया था।' प्रतिपाती अवधिज्ञान : एक दृष्टान्त __ प्रतिपाती अवधिज्ञान को एक उदाहरण से समझिए-एक मुनि कायोत्सर्ग में खड़े थे। परिणाम विशुद्धि इतनी बढ़ी कि उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हो गया। अवधिज्ञान से उन्होंने देवलोक में उपयोग किया। वहाँ उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा। इन्द्र अपनी इन्द्राणी के साथ शय्या पर बैठा है। मानिनी इन्द्राणी ने किसी कारण वश रुष्ट होकर इन्द्र के लात मार दी। फिर भी इन्द्र ने मोहवश इन्द्राणी के पैर को सहलाते हुए पूछा"कहीं तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी।" इन्द्र का मोइजनित व्यवहार देखकर मुनिजी को जरा-सी हंसी आ गई। मुनि ज्यों ही हंसे कि आया हुआ उनका अवधिज्ञान तुरंत चला गया। इसी प्रकार कुतूहल, आश्चर्य, हास्य आदि कारणों से आया हुआ अवधिज्ञान फौरन चला जाता है।२ अवधिज्ञानावरणीय कर्मबन्ध : स्वरूप और कारण
इन सभी भेद वाले अवधिज्ञान के आवरक कर्मों को अवधिज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। अवधिज्ञानावरण कर्म के उदय (प्रभाव) से आत्मा की अतीन्द्रिय ज्ञान क्षमता का अभाव हो जाता है। अवधिज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण हैं-आत्मा की अतीन्द्रिय ज्ञान शक्ति का अपलाप, उसके प्रति अश्रद्धा, आत्मा की ज्ञानशक्ति का निरर्थक एवं अनर्थकर कार्यों में व्यय करना, आत्मज्ञानी पुरुषों की अविनय आशातना करना, आत्मज्ञान प्राप्ति में रोड़ा अटकाना आदि।३
१. कर्मग्रन्थ भा. १ विवेचन (मरुधर केशरीजी) से पृ. ५१, ५२ २. रेकर्म तेरी गति न्यारी से पृ. ९६ ३. कर्मप्रकृति से पृ. ७
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