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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २५५ तथा विनयभक्ति से प्राप्त होने वाली बुद्धि वैनयिकी है। (३) कर्म अर्थात् सतत अभ्यास और विचार से, आनुवंशिकता से बृद्धिंगत होने वाली बुद्धि कार्मिकी या कर्मजा है। (४) पारिणामिकी-अतिदीर्घकाल तक पूर्वापर पदार्थों को देखने आदि, अवस्था के अनुसार अनुभव की परिपक्वता से होने वाला आत्मा का जो परिणाम है, उससे पैदा होने वाली बुद्धि पारिणामिकी होती है।'
मतिज्ञानावरणीय कर्म का परिष्कृत एवं सामान्य स्वरूप अतः मतिज्ञान के इन सब भेदों के रूप में आवरण करने वाले कर्मों को मतिज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। अर्थात्-मतिज्ञान के जितने भी भेद हैं, उन सब भिन्न-भिन्न नाम वाले मतिज्ञानों का आवरण करने वाले कर्म मतिज्ञानावरण कहे जाएंगे। चूंकि वे सब मतिज्ञान के प्रकार होने के नाते सामान्यरूप से उन सबका मतिज्ञान शब्द से और उन-उनका आवरण करने वाले कर्मों को मतिज्ञानावरणीय शब्द से ग्रहण करना चाहिए।२.
मतिज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण मतिज्ञानावरणीय कर्मबन्ध पांचों इन्द्रियों और मन से विषयों या पर-पदार्थों के प्रति राग, द्वेष, मोह, आसक्ति या घृणा करने से, इन इन्द्रियों में से किसी जीव के किसी इन्द्रिय की विकलता हो, मन्दता हो, या मन से यथार्थ मननादि करने का सामर्थ्य न हो, अथवा पांचों इन्द्रियों का दुरुपयोग किया जा रहा हो, अशुभ विषयों में उस-उस इन्द्रिय को या मन को प्रवृत्त किया जा रहा हो, वहाँ मतिज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है।३
- मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द तथा मतिज्ञानावरणीय का प्रभाव मतिज्ञान के मति (बुद्धि), स्मृति, संज्ञा, चिन्ता (चिन्तन) और अभिनिबोध, ये पर्यायवाची (समानार्थक) हैं, मतिज्ञान में ही इनका समावेश हो जाता है। नंदीसूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के अन्तर्गत ये नाम भी बताए हैं-ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा. (प्रत्यभिज्ञान), स्मृति, मति और प्रज्ञा। मतिज्ञानावरणीय के उदय से अथवा प्रभाव से बुद्धिमन्दता, स्मृतिमन्दता अथवा स्मृतिलुप्तता, चिन्तनशक्ति की अक्षमता, यथार्थ चिन्तन का अभाव, ऐन्द्रिय एवं मानसिक ज्ञान क्षमता का अभाव या मन्दता
१. (क) असुयनिस्सिय चउव्विह प. त.-उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, परिणामिया। बुड्ढी चउविहावुत्ता, पंचमी नोवलब्भई ।
-नन्दीसूत्र ३६ (ख) देखें इन चारों बुद्धियों के लक्षण, नन्दीसूत्र गा. ६९, ७६, ७३, ७८ ।
(ग) ठाणांग स्था. ४/४/३६४ २. कर्मप्रकृति से, पृ. ९ । ३. रे कर्म तेरी गति न्यारी से भावांश ग्रहण, पृ. ९४
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