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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २५३ (७) अल्प, (८) अल्पविध, (९) अक्षिप्र (चर), (१०) निश्रित, (११) संदिग्ध और (१२) अध्रुवा
बहु-बहुविध आदि के अर्थ और विश्लेषण ___ बहु का अर्थ है-अनेक और अल्प का आशय है-एक। जैसे-दो से अधिक (बह) तथा दो (अल्प) पुस्तकों को जानना, ये ही बहुग्राही और अल्पग्राही है। बहुत-सी पुस्तकों को जानने के बहुग्राही अवग्रह से धारणा-पर्यन्त ६ भेद होते हैं, इसी प्रकार अल्पग्राही (एक) पुस्तक को जानने के भी। इसी प्रकार धारणापर्यन्त ६ भेद समझ लेने चाहिए। इसी प्रकार बहुविध का आशय अनेक प्रकार से और एकविध का अर्थएक प्रकार से। इनका मतलब किस्म या जाति से है। इनके भी अर्थावग्रह से धारणा पर्यन्त ६+६ भेद समझ लेने चाहिए। क्षिप्र का अर्थ शीघ्र और अक्षिप्र का अर्थविलम्ब से है। इन क्षिप्रग्राही और अक्षिप्रगाही के भी अवग्रह से लेकर धारणा तक ६+६=१२ भेद होते हैं। अनिश्रित का अर्थ-हेतु द्वारा असिद्ध और निश्रित का अर्थ है, हेतु द्वारा सिद्ध वस्तु। जैसे पूर्व में अनुभूत शीतल, कोमल और स्निग्ध स्पर्श रूप हेतु से जूही के फूलों को जानने वाले अवग्रहादि चारों ज्ञान निश्रितग्राही तथा उक्त हेतु के बिना ही उन फूलों को जानने वाले अनिश्रितग्राही अवग्रहादि कहलाते हैं। तत्पश्चात् असंदिग्ध का अर्थ-निश्चित और संदिग्ध का अर्थ-अनिश्चित है। जैसे-यह चंदन का ही स्पर्श है, फूल का नहीं, यह असंदिग्ध और यह चंदन का स्पर्श होगा या फूल का; यह संदिग्ध ग्राही अवग्रहादि है। पहले हुआ था, वैसा ही बाद में होना ध्रुवग्रहण तथा पहले और पीछे होने वाले ज्ञान में न्यूनाधिक रूप से अन्तर आ जाना अध्रुव-ग्रहण है। जैसे कोई मनुष्य साधन-सामग्री होने पर उस विषय को पूर्ववत् अवश्य जान लेता है और दूसरा कभी उसे जान लेता है, कभी नहीं; दोनों के अवग्रहादि ज्ञान क्रमशः२ ध्रुवग्राही और अध्रुवग्राही कहलाते हैं। क्षयोपशम की तीव्रता के कारण विषय को अवश्य ग्रहण करने वाले ध्रुवग्राही अवग्रहादि, तथा क्षयोपशम की मन्दता के कारण विषय को कभी ग्रहण करने वाले तथा कभी नहीं करने वाले अध्रुवग्राही अवग्रहादि कहलाते हैं।
बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव इन ६ से होने वाले ज्ञान में विशिष्ट क्षयोपशम, उपयोग की एकाग्रता, अभ्यस्तता, ये असाधारण कारण हैं तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव इन ६ से होने वाले ज्ञान में
१. (क) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, विवेचन (मरुधर केसरीजी) से, पृ. २६ __ (ख) बहु-बहुविध-क्षिप्रानिश्रितानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम्। -तत्त्वार्यसूत्र अ. १, सू. १६ २. (क) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग (मरुधर वेशरीजी) से पृ. २७ से ३0 तक (ख) छव्विहा उग्गहमती पण्णत्ता..... खिप्पमीहति बहुमीहति जाब असंदिद्धमीहति ।..... छव्विहा
धारणा प.तं.-बहु धारेइ बहुविहं धारेइ पोराणं धारेइ, दुद्धरं धारेइ अणिस्सिय धारेइ, असंदिद्धं धारेइ ।
-स्थानांग सूत्र ८ स्था. सू. ५१२
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