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२५८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
दूसरी दृष्टि से श्रुतज्ञान के १४ और २० भेद हैं। चौदह भेद इस प्रकार हैं-(१) अक्षरश्रुत-अक्षरज्ञानरूपश्रुत, (२) संज्ञीश्रुत-द्रव्यमन वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का श्रुत, (३) सम्यक्श्रुत-सम्यग्हष्टि जीवों का श्रुत, (४) सादि श्रुत-जिसकी आदि हो, ऐसा शास्त्र या ग्रन्थ आदि, (५) सपर्यवसितश्रुत-जिसका अन्त हो, ऐसा शास्त्र या ग्रन्थ और (६) गमिकश्रुत-आदि, मध्य और अन्त में कुछ विशेषता के साथ उसी सूत्र को बार-बार कहना, (७) अंग-प्रविष्टश्रुत-आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक १२ अंग, जो साक्षात् भगवान् द्वारा अर्थरूप में भाषित, गणधरों द्वारा रचित हैं। सात इनके प्रतिपक्षी हैं-(८) अनक्षरश्रुत,' (९) असंज्ञीश्रुत, (१०) मिथ्याश्रुत, (११) अनादिश्रुत, (१२) अपर्यवसितश्रुत, (१३) अगमिकश्रुत, (१४) अंगबाह्यश्रुत। पहले के जो सात भेद बताए थे, उनसे ये विपरीत हैं, इसलिए उनसे विपरीत अर्थ समझना। श्रुतज्ञान के बीस भेद : स्वरूप और निमित्त
श्रुतज्ञान के बीस भेद इस प्रकार से समझने चाहिए(१) पर्यायश्रुत-उत्पत्ति के समय लब्धपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के होने
वाले कुश्रुत के अंश से दूसरे समय में ज्ञान का जितना अंश बढ़ता है,
वह पर्यायश्रुत है। (२) पर्यायसमासश्रुत-उक्त पर्यायश्रुत का समुदाय अथवा दो-तीन आदि
संख्याएँ। (३) अक्षरश्रुत-अकारादि लब्ध्याक्षरों में से किसी एक अक्षर का ज्ञान। (४) अक्षरसमासश्रुत-लब्ध्यक्षरों के समूह, एक दो आदि संख्याओं का ज्ञान। (५) पदश्रुत-अर्थावबोधक अक्षरों के समुदाय-पद का ज्ञान। (६) पदसमासश्रुत-पदों के समुदाय का ज्ञान। . (७) संघातश्रुत-गति आदि १४ मार्गणाओं में से एक मार्गणा का आंशिक
(एकदेशिक) ज्ञान। (८) संघात-समासश्रुत-किसी एक मार्गणा के अनेक अवयवों का ज्ञान। (९) प्रतिपत्तिश्रुत-गति, इन्द्रिय आदि द्वारों में से किसी एक द्वार के जरिये
समग्र संसार के जीवों को जानना। (१०) प्रतिपत्तिसमासश्रुत-गति आदि दो चार द्वारों के जरिये जीवों को जानना। (११) अनुयोगश्रुत-'सतपय-परूवणा-दव्वप्पमाणं च' इस गाथा में उक्त अनुयोग
द्वारों में से किसी एक के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानना।
१. ऊससिय नीससियं निच्युट खासियं च छीय च ।
निस्सिंधियमणुसार अणक्खरं छेलियाईयं ॥
-नंदीसूत्र गा. ८८
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