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= उत्तर-प्रकृतिबन्ध : === प्रकार, स्वरूप और कारण-१
समुद्र से उठने वाली बड़ी-छोटी लहरों की तरह मूल-उत्तर प्रकृतियां समुद्र में जिस प्रकार एक साथ सात-आठ लहरें उठती हैं, वे समाप्त नहीं होती, उससे पहले उन्हीं लहरों में से दसरी. तीसरी, चौथी, यों एक के बाद एक अगणित लहरें उठती रहती हैं, और विलीन होती रहती हैं। लहरों का यह सिलसिला एक के बाद एक चलता रहता है। इसी प्रकार जीव. रूपी समुद्र से मूल-प्रकृतिरूपी सात या आठ लहरें प्रतिक्षण उठती रहती हैं, साथ ही, वे समाप्त नहीं होतीं, उससे पहले ही एक-एक बड़ी लहर के साथ छोटी-छोटी सजातीय उत्तर कर्मप्रकृतियों की लहरें उठती रहती हैं और विलीन होती रहती हैं। इसका सिलसिला एक के बाद एक चलता रहता है। अर्थात्-मूल प्रकृतिबन्ध के साथ-साथ उनकी सजातीय उत्तर-प्रकृतियों का बन्ध भी चलता रहता है।
तत्त्वार्थ वार्तिक में एक रूपक के द्वारा इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-“जिस प्रकार विभिन्न बादलों का जल विभिन्न पात्रों में गिरकर भिन्न-भिन्न रसों में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार आठ मूल प्रकृति रूपी मेघों में से ज्ञानावरणीय कर्म सामान्यतः एक होकर भी अपने सजातीय श्रुतज्ञानावरणीय आदि विभिन्न रूपों में, दर्शनावरणीय भी एक होकर अपने सजातीय निद्रादि पांच तथा चक्षुदर्शनावरणीय आदि चार मिलकर नौ रूपों में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार शेष छहों कर्म (मूल कर्म प्रकृतियाँ) भी अपने-अपने सजातीय विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो जाते हैं।" इसके अतिरिक्त निम्नोक्त कारणों से एक ही कर्मपुद्गल वर्गणा विभिन्न रूप हो जीती है-“जिस प्रकार एक ही अग्नि में जलाने, पकाने, ठंड मिटाने, भस्म करने, पानी गर्म करने आदि विभिन्न प्रकार की शक्ति होती है, उसी प्रकार (ज्ञानावरणीय आदि) एक ही प्रकार के कर्मपुद्गल में सुख-दुःखादि रूप होने, श्रुतज्ञानादि को आवृत करने, चक्षु आदि दर्शनों को आवृत करने, क्रोधादि कषाय-नोकषाय आदि के रूप में
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