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२४६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
उपसंहार इस प्रकार कर्म की आठ मूल प्रकृतियों के स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव एवं बन्धकारण इत्यादि को भलीभाँति समझ कर उनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए। कर्मों के संवर और निर्जरा (आंशिक क्षय) से ही आत्मा का उत्तरोत्तर विकास होता
(च) अस्ति जीवस्य वीर्याख्योऽस्त्येकस्तदादिवत् । तदनन्तरयतीहेदमन्तरायं हि कर्म तत् ।।
-पंचाध्यायी २/१००७ (छ) जीव चार्थसाधन चान्तरा एति-पतजीत्यन्तरायम् । इदं चैव
जह राया दाणाई च कुणइ, भंडारिए विकूलंमि। एवं जेणं जीवो कम्मं तं अंतरायति ॥
___-ठाणांग २/४/१०५ टीका (ज) दाणंतराएर्ण लाभतराएणं भोगतराएणं उवभोगांतराएणं वीरियंतराएणं अंतरायकम्मासरीरप्पयोग बंधे।
-भगवतीसूत्र श. ८, उ. ९, सू. ३५१ (झ) जिणपूया-विग्घकरो हिंसाइ-परायणो जयइ विग्छ । -कर्मग्रन्थ भा. १, गा. ६१ (ट) जैन, बौद्ध, गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से भावांशग्रहण, पृ. ३७६
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