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२४४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
गोत्रकर्म कभी निष्फल नहीं होता
इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन स्वामी कहते हैं - वीतराग सर्वज्ञ आप्तपुरुषों का वचन असत्य नहीं होता। छद्मस्थों को उनके द्वारा कथित वचन समझ में नहीं आता, इसलिए असत्य नहीं हो सकता । गोत्रकर्म कदापि निष्फल नहीं होता, क्योंकि जिनका साधुदीक्षायोग्य साध्वाचार है तथा साधु आचार वालों के जो उपासक हैं, या जिन्होंने उनसे सम्बन्ध स्थापित किया है, जो आर्य-व्यवहार के पात्र हैं, उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहते हैं और उनमें उत्पत्ति का कारण उच्चगोत्रकर्म है। इससे विपरीत कर्म नीचगोत्रकर्म है । १
अन्तराय कर्म : स्वरूप, स्वभाव, बन्धकारण और प्रभाव
कर्मों की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं। उनमें अन्तराय कर्म आठवाँ है। अन्तराय . घातिकर्म है। आत्मा में अनन्तशक्ति है। उस आत्मशक्ति को प्रगट करने में जो वीर्य-शक्ति चाहिए, उसमें रोड़ा अटकाने वाला है - अन्तराय कर्म । जीव के पास या सामने सम्पत्ति या भोग्य-उपभोग्य सामग्री पड़ी है, परन्तु उसमें भावपूर्वक ममत्व-त्याग करके देने की शक्ति या त्याग करने का उत्साह जागृत नहीं होता। एक व्यक्ति को अमुक वस्तु प्राप्त होने वाली है, किन्तु अन्तराय कर्म के कारण बहुत मेहनत करने के बावजूद भी नहीं मिल पाती। इसके कारण खाने-पीने - पहनने आदि की भोग्य उपभोग्य वस्तुएँ अपने पास होते हुए भी वह उनका भोग या उपभोग नहीं कर पाता । उसमें अरुचि, अस्वस्थता, शोक, चिन्ता आदि अन्तराय देने वाले कारण उपस्थित हो जाते हैं। निश्चयनय की अपेक्षा से - अनन्त शक्ति होते हुए भी उस जीव में अपंगता, व्याधि, सुस्ती, आलस्य, भीति, पराधीनता, आसक्ति, चिन्ता, अरुचि, मानसिक विक्षिप्तता, तीव्र लुब्धता, अशक्ति आदि के कारण उसकी शक्ति इस कर्म के कारण रुक जाती है। या उसकी वीरता कुण्ठित हो जाती है। अतः अन्तरायकर्म आत्मा की सभी शक्तियों पर, दानादि क्षमताओं पर अंकुश लगाने वाला घातिकर्म है। अन्तराय का अर्थ हैविघ्न, बाधा, रुकावट, अड़चन आदि ।
इसका स्वभाव दुष्ट भण्डारी के समान है। जैसे- राजा के द्वारा आदेश देने पर भी भंडारी अर्थ प्रदान करने में आनाकानी करता है; टालमटूल करता है, उसी प्रकार अन्तरायकर्म जीवरूपी राजा के लिए वीतराग परमात्मा द्वारा अनन्तशक्तियाँ प्राप्त करने का आदेश (उपदेश) होने पर भी अन्तरायकर्मरूपी भंडारी दान, लाभ, भोग, उपभोग की इच्छा प्राप्ति में अथवा दान, लाभ, तप, संयम, प्रत्याख्यान, त्याग आदि प्रकट करने में रुकावट डालता है, क्षमता को कुण्ठित कर देता है। अन्तराय कर्म बनते हुए या सफल होते हुए कार्य को बिगाड़ देता है, असफल बना देता है। व्यवहार
१. (क) षट्खण्डागम पंचम खण्ड वर्गणा के अन्तर्गत अनुयोगद्वार, पु. १३, पृ. ३८८ (ख) जैनसिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री) से, पृ. १०७
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