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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २४३ क्रियाकलापों में अहंकारवृत्ति, स्वप्रशंसा-परनिन्दा की वृत्ति होती है। वह अपनी गुणहीनता को छिपाने और झूठा बड़प्पन दिखाने का प्रयत्न करता है, दम्भ और दिखावा करता है। इसका फल उसे भविष्य में नीचगोत्र कर्म के रूप में मिलता है।
उच्चगोत्र और नीचगोत्र के विविध अधिकारी उच्चगोत्र कर्म के उदय से प्राणी लोकप्रतिष्ठित उच्चकल आदि में जन्म लेता है, जबकि नीचगोत्रकर्म के उदय से प्राणी का जन्म अप्रतिष्ठित, असंस्कारी एवं नीच कुल में होता है। गोत्रकर्म के विपाक (फलभोग) की दृष्टि से आठ-आठ उपभेद बताये गए हैं-जाति, कुल आदि पूर्वोक्त आठ का मद न करने से आठ के पूर्व उच्च शब्द लग जाता है। यथा-उच्च-जाति गोत्र आदि। इसी प्रकार पूर्वोक्त आठ का मद करने से आठ के पूर्व नीच शब्द लग जाता है। यथा-नीच जाति गोत्र, नीच कुल गोत्र आदि। अर्थात्-जो व्यक्ति अपनी मानसिक-वाचिक-कायिक किसी भी प्रवृत्ति में अहंकार नहीं करता, वह प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर पूर्वोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है-(१) निष्कलंक मातृपक्ष, (२) प्रतिष्ठित पितृपक्ष (कुल), (३) सशक्त शरीर, (४) सौन्दर्ययुक्त अंगोपांग, (५) तपःशक्ति एवं उच्च साधनाशक्ति, (६) तीव्र प्रतिभा एवं प्रज्ञा तथा विपुल ज्ञान पर अधिकार, (७) विविध उपलब्धियाँ सिद्धियाँ (लाभ), (८) अधिकार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति। इसके विपरीत अहंकारी जीव नीच कुल में जन्म लेकर इन आठ क्षमताओं से वंचित रहता है।२
उच्चगोत्रकर्म की निष्फलता अथवा सफलता ? : समाधान षट्खण्डागम के अन्तर्गत प्रकृति-अनुयोगद्वार में गोत्रकर्म को लेकर कुछ शंका-समाधान प्रस्तुत किये गए हैं। वे इस प्रकार हैं-प्रश्न यह है कि उच्चगोत्र का काम क्या है ? राज्यादि सम्पदा की प्राप्ति तो सातावेदनीय कर्म के निमित्त से होती है। पांच महाव्रतों को ग्रहण करने की योग्यता भी उसका कार्य नहीं हो सकता, ऐसा माना जाएगा तो जो जीव महाव्रत ग्रहण नहीं कर सकते, उनमें उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त हो जाएगा। इक्ष्वाकु कुल आदि की उत्पत्ति भी उसका काम नहीं हो सकता, क्योंकि वे काल्पनिक हैं, परमार्थ से उनका अस्तित्व नहीं है। फिर वैश्यों, ब्राह्मणों और साधुजनों में भी उच्चगोत्र का उदय देखा जाता है। सम्पन्न जनों से उत्पत्ति को उच्चगोत्र का कार्य मानने पर पापकर्मी अनार्य म्लेच्छराज से उत्पन्न बालक के भी उच्चगोत्र के उदय का प्रसंग प्राप्त होगा। अणुव्रती व्यक्तियों से जन्म होना भी उच्च गोत्र का कार्य नहीं है। वैसा मानने से देवों में उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होगा, नाभिराय के पुत्र प्रथम तीर्थंकर भी नीच गोत्री ठहरेंगे। अतः उच्चगोत्र निष्फल है। उसमें कर्मत्व घटित नहीं होता। उसके अभाव में नीचगोत्र भी नहीं रहता। अतः गोत्र नामक कर्म की ही क्या आवश्यकता है ?
.. तत्त्वार्थसूत्र (उपाध्याय केवलमुनि संपादित) से, पृ.२८८,२८९ .. जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. ३७५
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