________________
मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २४१
हो, अथवा जिस कर्म के उदय से जीव उच्चावच ( उच्च-नीच ) कहलाता है, वह गोत्रकर्म है।
.
गोत्रकर्मबन्ध का मूल कारण : निरहंकारता - अहंकारता
गोत्रकर्म में उच्च-नीच गोत्रबन्ध का आधार धनादि साधनों का नहीं, किन्तु निरहंकारता - अहंकारता के आधार पर है। पूर्वबद्ध अमुक कर्मवश जीव अच्छे-बुरे गोत्र में उत्पन्न होता है। गोत्रकर्म में अच्छे प्रतिष्ठित कुटुम्ब या कुल में जन्म लेने अथवा अधम, दुराचरणी कुल में उत्पन्न होने की बात ही महत्वपूर्ण है। उच्च कुल में रक्त के संस्कार तथा खानदानी एवं कुलीनता, सभ्यता, संस्कृति और महत्ता तथा भव्यता के संस्कार प्रायः मिलते हैं; जबकि नीच कुल में हिंसाचरण, ठगी, कलह-क्लेश, मारामारी, कलुषित वातावरण, पापाचरण, स्वभाव की मलिनता, आतंक, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार आदि के कुटिल कुसंस्कार विरासत में मिलते हैं। गोत्रकर्म का प्रभाव केवल मनुष्यलोक में ही हो, ऐसा नहीं है; पशुओं और पक्षियों में भी गाय, घोड़ा, हाथी आदि कई जातिमान अजातिमान होते हैं, पक्षियों में भी मोर, तोता आदि पक्षियों में भी स्वभाव एवं गुणों में अन्तर पाया जाता है। आम, केला आदि फलों में भी उत्कृष्ट - निकृष्ट का अन्तर दिखाई देता है, ककड़ी आदि सब्जियों में अच्छी-बुरी - जाति का अन्तर होता है । इस दृष्टि से गोत्र का आधार प्रायः स्थान और बीज होता है। अच्छा बीज मिलना या अच्छे स्थान में पैदा होना अथवा इसके विपरीत बुरे ( खराब) बीज या स्थान का मिलना गोत्रकर्म पर निर्भर है। २
गोत्रकर्म का स्वभाव
गोत्रकर्म का स्वभाव सुघट और दुर्घट ( अच्छे-बुरे घड़े) के समान है। इस कर्म की तुलना कुम्हार से की गई है। कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कई घड़े ऐसे होते हैं जिन्हें लोग रंगीन कलश बनाकर अक्षत चंदन आदि से चर्चित करके पूजा करते हैं। कई घड़े ऐसे होते हैं, जो मदिरा आदि रखने के काम में आते हैं, इस कारण निम्न माने जाते हैं, उसी प्रकार गोत्रकर्म के कारण जीव श्लाघ्य - अश्लाघ्य बनता है। ३
१. (क) कर्मणोऽपादानविवक्षया गूयते शब्दाते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात्कर्मण उदयात्-गोत्रम् । - प्रज्ञापना २३/१ टीका
(ख) कर्मप्रकृति से, पृ. १२३
(ग) धर्म और दर्शन से, पृ. ८६
(घ) उच्चैर्गोत्रं देश-जाति-कुल-स्थान-मान-सत्कारैश्वर्याद्युत्कर्ष-निवर्तकम् । विपरीते नीचैर्गोत्रं चण्डाल-मुष्टिक-व्याध-मत्स्यबंध- दास्यादि-निवर्तकम्।
२. (क) जैनदृष्टिए कर्म से, पृ. ७०
(ख) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. ३७५
(क) जैनदृष्टिए कर्म से, पृ. ७०
(ख) धर्म और दर्शन से, पृ. ८६
Jain Education International
- तत्त्वार्थसूत्र ८ / १३ भाष्य
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org