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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २३९ यह देखा जाता है कि कोई मनुष्य काला-कलूटा, बैडौल, बीभत्स और भद्दी आकृति वाला होता है, जबकि कोई मनुष्य गुलाब के फूल जैसा सुन्दर और चित्ताकर्षक होता है, यह सब नामकर्म का ही प्रभाव है।
चाण्डालपुत्र मुनिश्री हरिकेशबल के बीभत्स शरीर का तथा ऋषिवर अष्टावक्र की शरीरगत वक्रता का कारण नामकर्म ही था। इसी कर्म के कारण किसी जीव में सुन्दरता और किसी में असुन्दरता के दर्शन होते हैं।
नामकर्म : व्यक्तित्व का निर्धारक मनोविज्ञान की अपेक्षा से नामकर्म जीव के व्यक्तित्व का परिचायक या निर्धारक तत्व कहा जा सकता है। जैनकर्म विज्ञान नामकर्म की प्रकृतियों को व्यक्तित्व निर्धारक तत्व के रूप में प्रस्तुत करता है।
नामकर्म के दो भेद और उनके बन्धकारण व विपाक प्रकार नामकर्म के दो भेद मुख्यतया किए गए हैं-शुभनाम और अशुभनाम। शास्त्रोक्त शुभनामकर्म के बन्ध के कारण ये हैं-(१) शरीर की सरलता, (२) वाणी की सरलता, (३) मन की या मनन-चिन्तन की सरलता (४) अहंकार और मात्सर्य से रहित होना या सामञ्जस्य से परिपूर्ण जीवन। इसी प्रकार अशुभ नाम के बन्ध के भी इनसे विपरीत चार कारण हैं। यथा-काया की वक्रता, वाणी की वक्रता, मन की वक्रता तथा अहंकार एवं मात्सर्य की वृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवना३ .
शुभ-अशुभ नामकर्म के विपाक के १४-१४ प्रकार - शुभ नामकर्म के विपाक (फलभोग) के १४ प्रकार यों हैं-(१) इष्ट शब्द (आदेय और प्रभावक वचन), (२) इष्ट रूप (सुन्दर गठा हुआ शरीर) (३) इष्ट गन्ध (शरीर से निःसृत होने वाले मल-मूत्र, पसीना आदि में सुगन्ध), (४) इष्ट रस (जैवीय रसों की समुचितता), (५) इष्ट स्पर्श (त्वचा आदि का कोमल एवं मनोज्ञ स्पर्श होना), (६) इष्ट गति (चंचलता एवं उद्विग्नता से रहित योग्य चाल-ढाल), (७) इष्ट स्थिति (स्थिर एवं सुशोभन बैठना-उठना, (खड़े होना आदि अथवा अंगोपांगों का यथास्थान होना), (८) उत्थानादि पाँच का होना (योग्य शारीरिक शक्ति), (९) लावण्य (शारीरिक
१. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१५ २. जैन, बौद्ध, गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. ३७४ ३. (क) योगवक्रता-विसंवादनं चाशुभस्यनाम्नः, तद्विपरीतं शुभस्य । तत्त्वार्थसूत्र ६/२१-२२ (ख) कायउज्जुययाए भावुज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवायणाजोगेणं सुभनामकम्मासरीर जाव पयोगबंधे। कायअणुज्जुययाए जाव विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्मा जाव पयोगबंधे।
--भगवती श. ८, उ. ९ (ग) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. ३७४
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