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२२० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) शब्द, अपशब्द या अप्रिय वचन सुनने को मिलते हैं, और (८) शरीर में विविध रोग, पीड़ा, अस्वस्थता, अंगभंग, अंक-वैकल्य आदि दुःखद शारीरिक संवेदनाएँ प्राप्त होती
___ संक्षेप में, आधि, व्याधि और उपाधि, इनमें से किसी एक, दो या तीनों से घिरे हुए जीव को जो दुःख का अनुभव (वेदन) होता है उसे असातावेदनीय कर्म का उदय. समझना चाहिए। दूसरे शब्दों में, जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति में दुःख का वेदन-अनुभव होता है, उसी का नाम असाता-वेदनीय कर्म है। 'जीवप्राभृत' में बताया गया है कि असातावेदनीय कर्म के विपाक वेदन के लिए अरतिमोहनीय कर्म का उदय आवश्यक है। अरतिमोहनीय कर्म के उदय के साथ असातावेदनीय कर्म दुःख के कारणभूत इन्द्रिय-विषयों का अनुभव कराता है; दुःख के संयोगों को मिलाता है।२ सातावेदनीय : लक्षण, स्वभाव और बन्धकारण
जिस कर्म के उदय से आत्मा को इन्द्रिय-विषय-जन्य सुख का अनुभव हो, उसे सातावेदनीय कहते हैं। यह ध्यान रहे कि सातावेदनीय कर्म के द्वारा जो सुख का अनुभव होता है, वह इन्द्रियविषयजन्य सुख का होता है। आत्मा को जो स्वरूप के सुख की अनुभूति होती है, वह किसी कर्म के उदय से नहीं होती।. वैषयिक सुखं दुःख-मिश्रित या दुःख-बीज होता है, उसमें अनाकुलता नहीं होती। उसका अनुभव क्षणिक, परिणाम कटुक और वह संसारवृद्धि का हेतु होता है। ___ सातावेदनीय कर्म का स्वभाव मधुलिप्त तलवार की धार में लगे शहद को चाटने से समान है। शहद चाटने का सुख क्षणिक है; उसमें जीभ कटने का दुःख छिपा हुआ
ये सातावेदनीय के कर्म से प्राप्त होते हैं -
स्वस्थ शरीर, साधन-सुविधाओं की अनुकूलता; चिन्ता, तनाव, भय, विपत्ति आदि का कोई कारण न हो तथा कुटुम्ब अपने अनुकूल हो, ऐसे अनुकूल संयोगों के कारण इन्द्रिय-विषय-जन्य सुखानुभव सातावेदनीय कर्म के उदय से होता है।४
१: जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से उद्धृत,
पृ. ३७० २. (क) आत्मतत्व-विचार से, पृ. ३१४ ।।
(ख) कर्म-प्रकृति (आचार्य जयन्तसेन विजयजी म.) से, पृ. १७ (ग) रतिमोहनीयोदय-बलेन जीवस्य सुख-कारणेन्द्रिय-विषयानुभवन व्यापारयति तत् साता
___अरतिमोहनीयोदयबलेन तु............ असातावेदनीयम् । -जीव-प्राभृत २५/१७/८ ३. कर्मविपाक (प्रथम कर्मग्रन्थ मरुधर केसरीजी) से, पृ. ६६ ४. आत्मतत्वविचार से, पृ. ३१६
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