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२३६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कालमर्यादा घट जाती है। इसके विपरीत यदि आयुबन्ध के समय परिणाम तीव्र हों तो आयु का बन्ध गाढ़ होता है। बंध के गाढ़ होने से निमित्त मिलने पर भी बन्धकालीन मर्यादा कम नहीं होती और आयु एक साथ भोगी नहीं जा सकती। अतः तीव्र परिणाम से बाँधी गई आयु शस्त्र, विष आदि का प्रयोग होने पर भी अपनी नियत काल मर्यादा से पहले पूरी नहीं होती, जबकि मन्द-परिणामजन्य शिथिल बंधन वाली आयु शस्त्रादि के प्रयोगों के होते ही स्व-नियत-काल-सीमा समाप्त होने से पूर्व ही अन्तर्मुहूर्त में भोग ली जाती है। आयु के इस शीघ्र भोग का नाम अपवर्तनीय या अकालमृत्यु है और नियत कालिक भोग को अनपवर्तनीय या काल-मृत्यु कहते हैं।' . अपवर्तनीय आयु के सम्बन्ध में एक प्रश्न और समाधान __ प्रश्न होता है-अपवर्तनीय आयु में यदि नियतकाल मर्यादा से पूर्व ही आयु का भोग हो जाता है, तो कृतनाश, अकृतागम और निष्फलता दोषों का प्रसंग उपस्थित होता है। अर्थात्-यदि आयु के अवशिष्ट रहते हुए जीव मर जाता है, कृत (बद्ध) आयुकर्म का फल न भोगने से कृतनाश दोष उपस्थित होता है, और मरणयोग्य कर्म के न होने पर भी मृत्यु के आ जाने (आयुष्य कालावधि से पूर्व ही समाप्त हो जाने) से अकृतागम दोष उपस्थित होता है, तथा अवशिष्ट बंधी हुई आयु का भोग न होने से निष्फलता दोष का प्रसंग आता है। इन दोषों से निवृत्ति कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि अपवर्तनीय आयु में पूर्वोक्त दोषों की सम्भावना बिलकुल नहीं है, क्योंकि इस आयु में भी बँधी हुई आयु पूरी की पूरी ही भोगी जाती है, बद्धायु का कोई भी अंश ऐसा नहीं बचता, जो भोगा न जाता हो यानी विपाकानुभव किये बिना बद्धायु का कोई भी भाग नहीं छूटता। यह अवश्य है कि इसमें बँधी हुई आयु काल-मर्यादा के अनुसार न भोगी जाकर, एक साथ शीघ्र ही भोग ली जाती है। अपवर्तन का अर्थ ही है-शीघ्र ही अन्तर्मुहूर्त में अवशिष्ट कर्म भोग लेना। इसलिए इस आयु में न तो कृतकर्म का नाश है, और न बद्ध आयुकर्म की निष्फलता है, तथैव बद्ध आयुकर्मानुसार आने वाली मृत्यु होने से अकृतकर्म का आगम भी नहीं है।२ दीर्घकालमर्यादा वाले कर्म अल्पकाल में ही भोग लेने का विश्लेषण
दीर्घकालिक मर्यादा (स्थिति) वाले कर्म अल्प (अन्तर्मुहूर्त) काल में ही कैसे भोग लिये जाते हैं ? इसे समझाने के लिए तीन दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं-जैसे-सूखी घास के सघन ढेर में एक तरफ से छोटी-सी चिनगारी छोड़ दी जाती है तो वह उस तृणराशि के एक-एक तिनके को क्रमशः जलाते-जलाते उस सारे ढेर को बहुत अधिक समय में जला पाती है। किन्तु कोई उस घास के ढेर को ढीला करके उसमें चारों
१. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३०७-३०८
(ख) कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधर केशरी जी) पृ. ९६ २. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३०८
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