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२३२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कहा और स्वयं नवकारमंत्र की माला फेरने बैठा। माला हाथ में है और उसकी आत्मा शरीर छोड़कर अगले लोक के लिए प्रस्थान कर चुकी है। पली चाय तैयार करके लाई तो देखती है-पतिदेव अपना आयुष्य पूर्ण कर चुके हैं। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं, मनुष्य किसी दशा में हो, समय पूरा होते ही आयुष्यकर्म उसे छोड़कर भाग जाता है।' आयुष्य कर्म बन्ध के सामान्य कारण
यों तो स्थानांग सूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र आदि में देवायु, मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु एवं नरकायु के बन्ध होने के पृथक-पृथक कारण बताए हैं। अर्थात् किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उनका निर्देश उक्त आगमों में है, जिसका निरूपण हम अगले खण्ड में करेंगे, परन्तु सभी प्रकार के आयुष्य के बन्ध का कारण बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-शील और व्रतों से रहित होना चारों प्रकार के आयुष्यों का सामान्य बन्ध हेतु है। व्रत का अर्थ है-अहिंसा, सत्यादि पाँच मुख्य नियम, तथा शील का अर्थ है-व्रतों की पुष्टि के लिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत आदि उपव्रतों का पालन, जिनसे क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग हो। अतः व्रत का न होना (निव्रतत्व) और शील का न होना (निःशीलत्व), तीनों प्रकार के आयुष्यों (नरक-तिर्यक् मनुष्यायु) के सामान्य बन्ध हेतु हैं।२
अल्पायु और दीर्घायु-बन्ध के कारण __भगवतीसूत्र में कहा गया है कि तीन कारणों से जीव अल्पायु वाले कर्म बाँधते हैं। यथा-प्राणियों की हिंसा करने से, झूठ बोलने से, तथारूप (श्रमण-माहन के अनुरूप क्षमादि धर्म वाले) श्रमण और माहन को अप्रासुक (सचित्त), अनैषणीय (अकल्पनीय) अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप चतुर्विध आहार देने से। भगवती आराधना में कहा गया है जो प्राणी सदैव दूसरे जीवों का घात करके उनके प्रिय जीवन का नाश करता है, वह प्रायः अल्पायुषी होता है। इसके विपरीत तीन कारणों से जीव दीर्घायु वाले कर्म बाँधते हैं। यथा-प्राणियों की हिंसा न करने से, झूठ न बोलने से और तथारूप श्रमण-माहन को प्रासुक, एषणीय अशन-पान-खादिमस्वादिमरूप चतुर्विध आहार देने (बहराने) से। इसी शास्त्र में अशुभ दीर्घायु कर्म बाँधने के विषय में कहा गया है-“तीन कारणों से जीव अशुभ दीर्घायु फल वाले कर्म बाँधते हैं। यथा-प्राणियों की हिंसा करके, झूठ बोलकर, तथारूप श्रमण या माहन की हीलना (अवहेलना-उपेक्षा), निन्दा, लोगों के समक्ष गर्दा (बुराई कराना, झिड़कना) १. (क) कर्मग्रन्थ भाग १ (मरुधर केसरी) पृ. ९४-९५
(ख) ज्ञान का अमृत से पृ. ३०६ २. निःशील-व्रतत्वं च सर्वेषाम् । . -तत्त्वार्थसूत्र ६/१९ (पं. सुखलाल जी का विवेचन)
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