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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २२१
सातावेदनीय कर्मबन्ध के ६ प्रमुख कारण सातावेदनीय कर्मबन्ध के तत्त्वार्थ सूत्र में ६ प्रमुख कारण बताये गये हैं-(१) भूतानुकम्पा-चारों गतियों के सभी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा, दया, करुणा रखना, अर्थात् दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानना अनुकम्पा है। (२) व्रती-अनुकम्पा-जिन व्यक्तियों ने व्रत, नियम, त्याग आदि ग्रहण कर लिये हैं, उनके प्रति दयाभावसहानुभूति रखना। यहाँ दयाभाव का फलितार्थ है-जो सर्वविरत साधुवर्ग है, तथा देशविरत श्रावकवर्ग है, उन्हें सहयोग देना, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, उन पर पूज्य भाव या श्रद्धाभाव रखकर उन्हें कल्पनीय-एषणीय आहार-पानी आदि से साता पहुँचाना; ताकि वे अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तप-संयम में वृद्धि-उन्नति कर सकें, आत्म साधना में दृढ़ रह सकें। (३) दान-आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान देना, वह भी निष्काम भाव से, विनम्रतापूर्वक दान है। संक्षेप में, अपनी वस्तु दूसरों (जरूरतमंदों, अभाव-पीड़ितों, दीन-दुखियों अथवा सुपात्रों) को नम्रभाव से अर्पित करना दान है। (४) संराग-संयमादि योग-इसके अन्तर्गत चार बातें समाविष्ट हैं-(१) सराग-संयम (साधु वर्ग का वह संयम, जिसके साथ रागभाव मिश्रित हो), (२) संयमासंयम (गृहस्थवर्ग का धर्म, जिसमें संयम और असंयम का मिला-जुला रूप हो), (३) अकामनिर्जरा-(वह निर्जरा जिसमें परवशता से, अनिच्छा से, भयादि प्रेरित होकर तप, त्याग या कष्ट सहन किया जाए), (४) बालतप-(तत्त्वज्ञान से रहित, अज्ञान, मिथ्यात्व आदि से प्रेरित कायाकष्ट आदि तप) इन चारों का मन-वचन-काया के योग से सम्पृक्त होना। (५) क्षान्ति-अर्थात् -क्षमा, सहिष्णुता, या सहनशीलता (क्रोधादि कषाय पर विजय प्राप्त करना। कषाय की उपशान्ति से वास्तविक क्षमा हो सकती है। (६) शौच का अर्थ है-पवित्रता। यहाँ आभ्यन्तर शौच अभीष्ट है। शौच तभी चरितार्थ होता है, जब आन्तरिक पवित्रता हो, निर्लोभ वृत्ति हो।'
... कर्मग्रन्थानुसार आठ कारण कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय कर्मबन्ध के ८ कारण बताये गए हैं-(१) गुरुजनों की भक्ति, (२) क्षमा, (३) करुणावृत्ति, (४) व्रत-पालन की भावना, (५) संयम-योग का पालन या योग-साधना (त्रिविध योगों की सत्कृत्यों में प्रवृत्ति), (६) कषाय-विजय, (७) दान और (८) धर्म पर दृढ़ता अथवा दृढ़ श्रद्धा।२
__ भगवतीसूत्र-प्रतिपादित सातावेदनीय कर्म के कारण भगवतीसूत्र में सातावेदनीय कर्मबन्ध के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है-“प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, भूतों (वनस्पतिकायिक जीवों) पर अनुकम्पा १. भूत-व्रत्यनुकम्पा-दान सराग-संयमादि-योगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेधस्य।
-तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से ६/१३ पृ. २७५ २. गुरुभत्ति-खति-करुणा-वय-जोग-कसायविजय-दाणजुओ । दढधम्माह अज्जइ सायमसायं विवज्जयओ ॥
-कर्मग्रन्थ भा. १, गा. ५५
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