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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २२५ रूप अशुभ कर्मबन्ध का भागी नहीं होता, वैसे ही सांसारिक दुःख या कर्मजन्यदुःख दूर करने के उपायों को प्रसन्नतापूर्वक करता हुआ त्यागनिष्ठ साधक भी सवृत्ति तथा शुभ अध्यवसाय के कारण असातावेदनीय का बन्ध नहीं करता।
मोहनीय कर्म : लक्षण, स्वभाव और बन्ध कारण जिस प्रकार मदिरा आदि नशीली वस्तुओं के सेवन से विवेकशक्ति तथा सोचने-विचारने की बुद्धि कुण्ठित एवं अवरुद्ध हो जाती है, उसी प्रकार जिन कर्म-पुद्गल-परमाणुओं से आत्मा की विवेकशक्ति, विचार-आचार की कार्यक्षमता कुण्ठित, मन्द और अवरुद्ध हो जाती है, और अकृत्य-दुष्कृत्य में प्रवृत्ति होती है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं।
‘सर्वार्थसिद्धि' में मोहनीय कर्म का निर्वचन करते हुए कहा गया है-'जो मोहित करता है, या जिसके द्वारा मोहा जाता है, वह मोहनीय कर्म है।'
प्रश्न होता है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार तो जीव भी मोहनीय सिद्ध होता है। इसका समाधान यों समझना चाहिए कि जीव से अभिन्न और कर्म-संज्ञा वाले पुद्गल द्रव्य में उपचार से कर्तृत्व का आरोप करके मोहनीय कर्म की इस प्रकार की व्युत्पत्ति की गई है। - 'जो मोहित करे, वह मोहनीय कर्म है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार धतूरा, मदिरा, सुन्दरी, भार्या आदि को भी मोहनीय-संज्ञा प्राप्त हो जाती है। इसका समाधान यह है, यहाँ प्रसंगानुसार तथा विवक्षानुसार मोहनीय नामक द्रव्यकर्म का विवेचन हो रहा है, इसलिए धतूरा आदि को मोहनीय कहना ठीक नहीं।२
मोहनीय कर्म : सभी कर्मों से प्रबल वस्तुतः जो कर्म आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न करता है, वह मोहनीय कर्म है। आठ कर्मों में यह सर्वाधिक शक्तिशाली है। सात कर्म यदि प्रजा हैं तो मोहनीय कर्म राजा है। इसके प्रभाव से वीतरागता प्रकट नहीं हो पाती। प्राणियों के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करता है-मोहनीय कर्म। दूसरे कर्म जीव की एक-एक शक्ति को आवृत करते हैं, जबकि मोहनीय कर्म अनेक प्रकार की शक्तियों को आवृत ही नहीं; विकृत, मूछित और कुण्ठित भी कर देता है। ज्ञानावरण के कारण जीव सम्यक्.रूप से नहीं जान पाता, दर्शनावरण के कारण यथार्थ नहीं देख पाता, और अन्तरायकर्म
१. तत्त्वार्यसूत्र, विवेचन (पं. सुखलालजी) से, पृ. १५९ २. (क) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से भावांश ग्रहण, पृ. ३७
(ख) मोहयति मोह्यतेऽनेनेति वा मोहनीयम् । __ . -सर्वार्थसिद्धि ८/४/२६० (ग) धवला १/९, १/८/११/५ (घ) जैन सिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १०१
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