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१७८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
दवा डालते हैं पेट में, परन्तु ठीक करती है, वह रुग्ण अवयव को
दूसरी ओर हम प्रायः प्रतिदिन अनुभव करते हैं कि रोग मस्तिष्क में है, सिर में दर्द है और हम दवा लेते हैं-पेट में, फिर भी दवा मस्तिष्क रोग को या सिर दर्द को ठीक कर देती है। इस प्रकार दर्द चाहे शरीर के किसी भी हिस्से में क्यों न हो, पेट में निगली हुई वह दवा वहीं पहुँच जाएगी और उस बीमार अवयव को स्वस्थ कर देगी । अर्थात् - शरीर में जिस किसी हिस्से में वह दर्द है, वहीं उक्त / ली हुई / दवा शीघ्र ही पहुँच कर अपनी क्रिया करेगी। सवाल होता है, वह दवा ठीक बीमार अवयव तक क्यों पहुँच जाती है ? दूसरे अवयव तक क्यों नहीं पहुँचती ? इसका समाधान यह है कि शरीर में ऐसी स्वाभाविक व्यवस्था है कि शरीर के जिस अंग में, जिस तत्व की कमी है, वह पदार्थ पहले उसी कमी को पूरा करता है। जिस तत्व की वहाँ कमी होती है, वह पदार्थ उसी दिशा में स्वयमेव आकृष्ट होकर जाता है। शरीर में आकर्षण की. एक सुचारु व्यवस्था है। शरीर में ही नहीं, सारे संसार में अपने-अपने अनुकूल और स्वजातीय के प्रति आकृष्ट होकर उसे खींच लेने की व्यवस्था है। हमारे कर्मपरमाणु - पुद्गलों की भी यही व्यवस्था है। जो कर्म-परमाणु गृहीत होते हैं, वे अपने सजातीय परमाणुओं द्वारा आकर्षित कर लिये जाते हैं। जो कर्मपरमाणु आत्मा द्वारा आकृष्ट होते हैं, उनमें उसी समय एक विशेष प्रकार की क्षमता निर्मित हो जाती है । '
योग और कषायों के निमित्त से स्वतः चारों प्रकार के बन्ध होते हैं।
वस्तुतः जीव के रागादि भावों से आत्मप्रदेशों में जो हलचल (योग - प्रवृत्ति) होती है, उससे कर्म-योग्य पुद्गल खिंचते हैं। वे स्थूल शरीर के भीतर से भी खिंचते हैं, बाहर से भी। इस योग से उन कर्मवर्गणाओं में विभिन्न कर्मों की प्रकृति (स्वभाव) के. अनुसार ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के रूप में अलग-अलग बंध पड़ते हैं, इसी का नाम प्रकृतिबंध है । २
यदि वे कर्म - पुद्गल किसी के ज्ञान में बाधा डालने वाली क्रिया से खिंचे हैं, तो उनमें ज्ञान के आवरण करने का स्वभाव पड़ेगा, अर्थात् ज्ञानावरणीय-कर्म-प्रकृति का बन्ध होगा। यदि वे कर्म-पुद्गल रागादि कषायों से खिंचे हैं तो चारित्र - घातक स्वभाव पड़ेगा, यानी चारित्रमोहनीय कर्म प्रकृति का बन्ध होगा। तात्पर्य यह है कि आगत कर्म-पुद्गलों को आत्म प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाही कर देना तथा उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि स्वभावों का पृथक्-पृथक् पड़ जाना योग से होता है। इन्हें ही क्रमशः प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। कषायों की तीव्रता या मन्दता के अनुसार उस कर्म-पुद्गल में स्थिति (काल मर्यादा) और फलप्रदान के निश्चय की शक्ति पड़ती
१. कर्मवाद से भावांशग्रहण, पृ. ३५-३६
२. जैन दर्शन ( डॉ. महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य) से भावग्रहण, पृ. २२६.
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