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२१० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) शक्ति आदि में विज डालने का स्वभाव निर्मित होता है, या यों कहें कि स्वतः उत्पन्न हो जाता है; इस प्रकार की व्यवस्था या अवस्था को प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। कर्मवर्गणा के स्कन्धों का आठ भागों में विभाजन कैसे ?
इस तथ्य को असत्कल्पना से समझना चाहें तो इस प्रकार समझ सकते हैं-मानलो कर्मवर्गणा के किसी ने ८००० स्कन्ध ग्रहण किये, उनमें से एक हजार स्कन्धों में ज्ञानावरण का स्वभाव उत्पन्न हुआ, दूसरे हजार स्कन्धों में दर्शनावरण-स्वभाव उत्पन्न हुआ; इस प्रकार प्रत्येक कर्म के एक-एक हजार स्कन्धों में पृथक-पृथक स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं। यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो इन कर्मस्कन्धों में जो स्वभाव उत्पन्न होते हैं, वे बराबर ही होते हैं, ऐसा कुछ नहीं है; वे विशेषाधिक ही उत्पन्न होते हैं। किसी जत्थे में कम तो किसी में अधिक। यहाँ तो स्थूल दृष्टि से असत्कल्पना के माध्यम से कर्मप्रकृतियों के पृथक-पृथक विभाजन को समझाया गया है।२ आठ कर्मों की प्रकृति का उपमा द्वारा निरूपण
गोम्मटसार, पंचसंग्रह (प्रा.) आदि में ज्ञानावरण कर्म की उपमा पर्दे से दी गई है। जैसे पर्दे से ढकी चीज का ज्ञान नहीं होता, वैसे ही ज्ञानावरणीय के उदय से पदार्थों का सम्यक् ज्ञान नहीं हो पाता। कुछ ग्रन्थों में ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव आँखों पर बाँधी हुई पट्टी के समान बताया है, जो आत्मा के अनन्तज्ञान को रोकता है।
दर्शनावरणीय कर्म का स्वभाव द्वारपाल के समान बताया गया है। जैसे-राजा का दर्शन चाहने वालों को द्वारपाल रोक देता है, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शनगुण को रोक देता है।
वेदनीय कर्म का स्वभाव शहद लिपटी हुई तलवार की धार के समान है। जिस प्रकार तलवार की धार में लगे हुए शहद को चाटने से वह मीठा लगता है किन्तु उसकी धार से जीभ कट जाती है। इसी प्रकार वेदनीय कर्म आत्मा के अनन्त अव्याबाध सुख के गुण को रोककर सांसारिक इन्द्रियजन्य सुख-दुःख का अनुभव कराता है।
मोहनीय कर्म का स्वभाव मद्य के नशे के समान है। जैसे-मद्य के नशे में चूर व्यक्ति होश में नहीं रहता, अपने हिताहित का विचार नहीं कर सकता; वैसे ही मोहनीय कर्म के प्रभाव से (उदय से) आत्मा अपने धर्म-अधर्म, हिताहित को नहीं सोच सकता, कदाचित् सत्य को जानते हुए भी मोह के नशे में सम्यक् आचरण नहीं कर पाता। मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र गुण कोस्वरूपरमणतारूप गुण को दबा देता है।
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. ३५५
(ख) रे कर्म ! तेरी गति न्यारी ! से, पृ. ४६ २. रे कर्म तेरी गीत न्यारी ! से, पृ. ४८
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