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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २११
आयुष्यकर्म का स्वभाव कारागृह के समान है। यह कर्म आत्मा के अविनाशित्व गुण को रोक देता है। गोम्मटसार में इसे पैर में पड़ी हुई बेड़ी के समान बताया है। जैसे -पैर में बेड़ी पड़ जाने पर मनुष्य एक ही स्थान पर पड़ा रहता है, वैसे ही आयुकर्म जीव को अमुक भव में ही रोके रखता है, उसके उदय रहते उस भव से छुटकारा नहीं होता। अथवा जैसे जेल में पड़ा हुआ मनुष्य उससे निकलना चाहता है, परन्तु सजा पूर्ण हुए बिना नहीं निकल सकता। वैसे ही नरकादि गतियों में पड़ा हुआ जीव आयुष्य पूर्ण हुए बिना उस गति या योनि से छूट नहीं सकता ।
नामकर्म का स्वभाव चित्रकार के समान है। जैसे - चित्रकार अच्छे-बुरे नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नामकर्म जीव के अरूपित्व गुण को रोक कर, नाना प्रकार के शरीर, गति, जाति, रूप, रंग आदि की रचना करता है। वह विभिन्न गतियों में देव, नारक आदि बनाता रहता है।
गोत्रकर्म को कुम्हार की उपमा दी है। जैसे - कुम्हार घी के और मद्य रखने के, अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्रकर्म आत्मा के अगुरुलघुत्व गुण को दबाकर, उच्चकुल- नीचकुल का या अच्छे-बुरे का व्यवहार कराता है।
अन्तराय कर्म का स्वभाव भण्डारी के सरीखा है। जैसे - शासक किसी को कुछ देना चाहता है, आदेश भी दे देता है, परन्तु दुष्ट भण्डारी मना करता है, देता नहीं है। इसी प्रकार आत्मा का गुण अनन्त शक्ति का होते हुए भी अन्तराय कर्म वीर्य (तप, संयम, साधना में शक्ति) गुण को तथा दानादि लब्धियों को रोक देता है। इस कर्म के उदय से आत्मा दानादि नहीं कर सकता और न ही अपनी शक्ति का विकास कर सकता है; उसे अभीष्ट वस्तु का लाभ नहीं हो पाता । १
आठ कर्मों का लक्षण और उनके बन्ध के कारण
ज्ञानावरणीय कर्म का लक्षण है- जो कर्म ज्ञान का अर्थात् विशेष बोध का आच्छादन - आवरण करता है, अर्थात् जो कर्म आत्मा के ज्ञान स्वभाव को उसी प्रकार ढक देता है, जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढक देता है, वह ज्ञानावरणीय है।
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· ज्ञानावरण- कर्मवर्गणाएँ आत्मा के द्वारा सहज ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती हैं। ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध मुख्यतः मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के कारण होता है। इसके कारण आत्मा के ज्ञान के जाज्वल्यमान प्रकाश पर एक, दो, चार, पांच, पचास, सौ या उससे अधिक गाढ़े पर्दे ज्यों-ज्यों पड़ते जाते हैं, त्यों-त्यों आत्मा के अन्दर ज्ञान का प्रकाश होते हुए भी बाहर प्रगट नहीं होने पाता, अथवा बहुत ही कम
१. (क) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. मू. २१/१५
(ख) प्रशमरति (वाचकवर्य श्री उमास्वाति) गा. ३४ का विवेचन, पृ. १३-१४
(ग) पड-पडिहा रसि मज्जा हडि - चित्तकुलाल-भंडारीणं ।
'जह एदेसि भावा, तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ।
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- पंचसंग्रह (प्रा. २ / ३)
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