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= मूल कर्म प्रकृति-बंध := स्वभाव, स्वरूप और कारण
प्रकृतिबन्ध : गृहीत कर्म पुद्गलों का आठ प्रकृतियों में विभाजन आत्मा प्रतिसमय अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म-स्कन्धों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। इन कर्मस्कन्धों में मिथ्यात्व, कषाय आदि अध्यवसाय-विशेष के कारण एक प्रकार की हलचल-सी पैदा होती है। जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए उन कर्म पुद्गलों-स्कन्धों-दलिकों या कार्मण-वर्गणाओं के आत्मा के साथ जुड़ते ही, उनमें विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार उन कर्मों में विभिन्न स्वभाव या शक्ति उत्पन्न हो • जाने को प्रकृतिबन्ध कहा गया है। - कर्मविज्ञानवेत्ताओं के अनुसार उन स्वभावों की अपेक्षा ही कर्म प्रकृतियों की रचना होती है। उक्त स्वभाव-निर्माण को ही शास्त्रीय भाषा में प्रकृतिबन्ध कहा गया है। वे प्रकृतियाँ दो प्रकार की होती हैं-मूल-प्रकृतियाँ और उत्तर-प्रकृतियाँ। कर्म की मूलप्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय आदि आठ हैं। प्रकृतिबन्ध में कर्मदलिक मुख्यतया आठ भिन्न-भिन्न स्वभावानुसार इन मूल आठ कर्म प्रकृतियों के रूप में अवस्थित हो जाते हैं।
कर्मवर्गणा-स्कन्धों में विविध फलदान के स्वभाव की उत्पत्ति आशय यह है कि उन गृहीत कार्मणवर्गणा के कुछ स्कन्धों में ज्ञान को रोकने का स्वभाव होता है, कितने ही स्कन्धों में दर्शन को रोकने का स्वभाव, कई स्कन्धों में सुख-दुःख का वेदन कराने का स्वभाव, तो कुछ में क्रोधादि करवाकर वीतरागता को रोकने का स्वभाव होता है। इसी प्रकार कितने ही कर्मों में विभिन्न भवों में रोके रखने का स्वभाव, कुछ कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शरीर-रचना का स्वभाव तथा कितनों में उच्च-नीच कुलों में उत्पन्न कराने का स्वभाव एवं कितने ही कर्मवर्गणा-स्कन्धों में
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