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२०८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रकार भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार चैत्र के बाद वैशाख, वैशाख के बाद ज्येष्ठ, इस प्रकार बारह महीनों के क्रम के निर्धारण के पीछे भी एक हेतु है। छह ऋतुओं का क्रम भी विचारपूर्वक निर्धारित है। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय के बाद दर्शनावरणीय, दर्शनावरणीय के अनन्तर वेदनीय, वेदनीय के पश्चात् मोहनीय, मोहनीय के बाद आयुष्य, आयुष्य के बाद क्रमशः नाम, गोत्र और अन्तराय, यों अष्टविध कर्म का प्रकृतियों के अनुसार क्रम रखने के पीछे भी आधारपूर्ण हेतु है।
आत्मा के समस्त गुणों में ज्ञान प्रमुख है। ज्ञान और आत्मा का एक दृष्टि से तादात्म्य है। आत्मा की पहचान उसके मुख्य गुण-ज्ञान के द्वारा कराई जाती है। इसलिए उसका (ज्ञान का) अवरोध-आवरण करने वाले ज्ञानावरणीय कर्म को सर्वप्रथम रखा गया है। उसके पश्चात् दर्शनावरणीय कर्म का स्थान है, जो आत्मा के दर्शनगुण को आवृत एवं सुषुप्त करता है। ये दोनों कर्म अपना फल दिखाने के लिए सांसारिक सुख-दुःख को वेदन कराने के हेतु बनते हैं, इसलिए दर्शनावरणीय कर्म के बाद वेदनीय कर्म को रखा गया है। सुख-दुःख का वेदन कषाय या राग-द्वेषादि होने पर ही होता है। कषाय या राग-द्वेषादि मोहनीय कर्म के अंग हैं। इसलिए वेदनीय कर्म के बाद मोहनीय कर्म का स्थान है। मोहनीय कर्म से संत्रस्त, ग्रस्त या मूढ़ बना हुआ जीव अनेक प्रकार के आरम्भ-समारम्भ या हिंसादि का आचरण करता है, जिससे वह नरक, तिर्यंच आदि का आयुष्य बांधता है। इस कारण मोहनीय कर्म के बाद आयुष्य कर्म को रखा गया है। आयुष्य कर्म गति, जाति, शरीर आदि के बिना भोगा नहीं जा सकता। इसलिए आयुष्यकर्म के बाद नामकर्म रखा गया है। नामकर्म का उदय होने पर उच्च-नीच गोत्र का उदय अवश्य होता है, इस दृष्टि से नामकर्म के बाद गोत्रकर्म को स्थान दिया गया है। उच्च-नीच गोत्र के उदय होने पर क्रमशः दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य आदि शक्तियाँ न्यूनाधिरूप से बाधित एवं कुण्ठित होती हैं। इसलिए गोत्र कर्म के बाद अन्तरायकर्म को स्थान दिया गया है। आठों ही मूल कर्म-प्रकृतियों का अपने-अपने स्वभावानुसार उचित क्रम रखा गया है।' कर्म-प्रकृति को पहचानना सर्वप्रथम आवश्यक ___ अतः किसी भी कर्म को यथार्थरूप से पहचानने के लिए सर्वप्रथम उक्त कर्म की प्रकृति कैसी है? कर्मबन्ध के समय उक्त कर्मस्कन्धों में किस-किस प्रकार की विविधता होती है, इसे जानना आवश्यक है। कर्म के स्वभाव को जाने बिना उसके विविध स्थानों में होने वाले असर और उसकी गाढ़ता, शिथिलता या शक्ति का पता लगना कठिन है। वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में जैसे ऑक्सीजन और हाईड्रीजन को देखकर उनका स्वभाव सर्वप्रथम जान लेता है, तभी प्रयोग करता है, वैसे ही आत्मा की प्रयोगशाला में आत्मार्थी को कर्मों के विविध स्वभाव को जानना आवश्यक है। प्रकृतिबन्ध का कार्य कर्मों के विभिन्न स्वभाव और शक्ति को बताना है।२ १. आत्म तत्त्व विचार, पृ. ३०८. २. जैन दृष्टिए कर्म, पृ. ४५
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