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२०६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अनुमान लगाया जा सकता है। न्यायशास्त्रानुसार कार्य पर से कारण का अनुमान करना न्यायोचित है। जैसे-जैसे तथा जितने कुछ भी भाव या संयोग आदि हैं, वैसी-वैसी उतनी ही मुख्य या मूल प्रकृतियाँ होनी चाहिए। अतएव उन कर्म-प्रकृतियों को जानने से पहले हमें उन कार्यों तथा भावों को जानना चाहिए। आत्मा के पूर्वोक्त आठ मूल गुणों या स्वभावों को आवृत या विकृत करने वाले आठ ही प्रधान भाव या कार्य प्रतीत होते हैं। इस दृष्टि से द्रव्यकर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ और उत्तर प्रकृतियाँ १४८ या १५८ मानी गई है। कर्म के इतने भेद-प्रभेद क्यों? एक ही कर्म का प्रतिपादन क्यों नहीं? - कुछ लोगों का तर्क है कि कर्म-प्रकृतियों के इतने भेद-प्रभेद करने से व्यक्ति मूल वस्तु को पकड़ नहीं पाता और भेद-प्रभेदों की गणना और उन्हें समझने में ही उलझ जाता है; अतः भेद-प्रभेद न करके मूल कर्म का ही उपदेश किया जाए, क्योंकि हमें कर्म का क्षय ही तो करना है। अतः केवल कर्मबन्ध का विश्लेषण किया जाय तो क्या हर्ज है?
इसका समाधान यह है कि किसी रोगी को केवल यह कह दिया जाए कि तुम्हें रोग है, इतना कहने से उसका समाधान या रोगनिवारण नहीं हो सकता या नहीं किया जा सकता, उसे यह बताना भी अपेक्षित होगा, कि तुम्हारा रोग इस किस्म का है, उसका स्वभाव इस प्रकार का है, उसकी उत्पत्ति का अमुक-अमुक कारण है, और उसके सही इलाज के लिए अमुक-अमुक दवा, पथ्य और उपचार लेना ठीक होगा। साथ ही चिकित्सक को भी जानना होगा कि अमुक-अमुक रोगी का रोग किस-किस प्रकार है? इस रोग का लक्षण या स्वभाव कैसा है? यह रोग किन कारणों से होता है? इसी प्रकार मुमुक्षु या आत्मार्थी को केवल यह कहने से काम नहीं चलेगा कि तुम्हें कर्म-रोग लगा है। परन्तु उसे यह बताना पड़ेगा कि कर्म से सम्बन्धित रोग, उनकी अलग-अलग प्रकृति के अनुसार इतने प्रकार के हैं, इनमें से अमुक लक्षणों या स्वभाव के अनुसार तुम्हें लगा हुआ कमरोग अमुक प्रकार का है। उसकी उत्पत्ति के कारण अमुक-अमुक हैं और उसकी प्रकृति इस प्रकार की है, उस कर्म का फल इस प्रकार का है। इस प्रकार जब तक उस साधक को अमुक विशिष्ट कर्म का, उसकी प्रकृति का स्वरूप आदि नहीं बताया जाएगा, तब तक उक्त कर्म का क्षय, क्षयोपशम या परिवर्तन भी नहीं किया जा सकेगा।२ अतः कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियाँ, उनका स्वरूप तथा उनके कारण, फल आदि का जानना अनिवार्य होने से कर्म की प्रकृतियों के अनुसार उनके मूल और उत्तर दो प्रकार तथा उनके क्रमशः आठ और एक सौ
१. कर्म-सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ५५-५६ २. आत्म-तत्व-विचार से भावांश-ग्रहण, पृ. ३०७-३०८
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