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प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप २०७ अट्ठावन या एक सौ अड़तालीस भेद बताये गए हैं। धवला में यह भी कहा गया है कि बद्ध, उदीर्ण और उपशान्त के भेद से स्थित सभी कर्म प्रकृतिरूप हैं।'
आठ ही कर्म सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित : नौवाँ नहीं इससे सम्बन्धित एक प्रश्न और है-जैन कर्मविज्ञान ने प्रकृतियों के अनुसार कर्मसमूह को आठ विभागों में विभक्त किया है। उसका कारण हम पहले ही बता चुके हैं कि आत्मा के मौलिक गुण आठ हैं, उन आठों ही गुणों को बाधित, कुण्ठित और आवृत करने के लिए एक-एक प्रकार की प्रकृति वाले आठ कर्म हैं। इस अनन्त वैचित्र्यपूर्ण संसार में एक भी ऐसी आत्मा या आत्म-स्थिति नहीं है, जिसका समावेश इन आठ कर्मों में से एक या दूसरे में हुए बिना न रहे। जैनदर्शन सर्वज्ञ वीतराग पुरुषों द्वारा उपदिष्ट है, इसलिए उन्होंने अपने केवलज्ञान के प्रकाश में आत्मा के गुणों, स्वभावों और उन्हें दबाने या प्रतिरुद्ध करने वाले जो आठ प्रकार बताए हैं, इसमें सन्देह को कोई अवकाश ही नहीं है। छद्मस्थ मनुष्य की बुद्धि आत्मा पर हावी होने वाले ऐसे एक भी अतिरिक्त भाव को नहीं खोज सकती, जो इस अष्ट कर्मवर्गणा के अन्तर्गत न हो। आठ कर्मों के सिवाय नौवां कर्म ढूंढने की अल्पज्ञ मनुष्य की बुद्धि चाहे जितना बौद्धिक व्यायाम कर ले, आखिर वह परास्त ही होगी।२ इन अष्ट कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के अनुसार इनका नाम इस प्रकार रखा गया है-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराया३
आठ मूलकर्मप्रकृतियों का यह क्रम क्यों? . कई लोग प्रकृतिबन्ध से सम्बन्धित एक प्रश्न उठाया करते हैं कि कर्म की पूर्वोक्त
आठ मूल प्रकृतियों का यह क्रम क्यों? इस क्रम के पीछे क्या आधार या कारण है? इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार रवि के बाद सोम, सोम के बाद मंगल, मंगल के पश्चात् बुध; इत्यादि प्रकार से दिनों का क्रम विश्व के सभी ज्योतिर्विदों या खगोलवेत्ताओं द्वारा मान्य है, क्योंकि उसके पीछे एक आधारपूर्ण अनुभूत हेतु है; इसी १. जैनसिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्रजी) में उद्धत, पृ. ९८ २. · कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. ५ ३. (क) नाणस्सावरणिज्ज, देसणावरणे तहा।।
. वेयणिज्ज तहा मोहं, आउकम्म तहेव य ॥ नामकर्म च गोयं च, अंतराय तहेव य ।
एवमेयाई कम्माई, अद्वेव उ समासओ ॥ -उत्तराध्ययनसूत्र अ.३३, गा.२-३ (ख) आयो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीयायुष्क-नाम-गोत्रान्तरायाः।
-तत्त्वार्थसूत्र अ.८, सू.५ (ग) कर्मग्रन्थ भाग १, गाथा ३ (घ) “अट्ठ कम्म-पगडीओ पणत्ताओ, त.. नाणावरणिज्ज""'' अंतराइये ।"
-प्रज्ञापना पद २१, उ.१, सू.२२८
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