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१९२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) से बहिर्गत हो जाते हैं। यदि स्थितिकाल का समय दीर्घ हो और जीव की आयु थोड़ी हो, तो वह बद्धकर्म जन्म-जन्मान्तरों तक अवस्थित रहकर फल प्रदान करता रहता
रसबन्ध : कब, कैसे, किस प्रकार का ?
इसी प्रकार राग-द्वेषादि अध्यवसाय से आकृष्ट होकर कर्मपुद्गल जिस समय आत्मा के साथ बद्ध होते हैं, उसी समय वे फल-प्रदान करने की शक्ति रूप रसयुक्त होकर बद्ध होते हैं। इसे ही रसबन्ध कहते हैं। कर्म बांधते समय जैसे परिणाम हों, वैसा रस पड़ता है। और जैसा रस पड़ा हो, वैसा ही तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र तथा मन्द, मन्दतर, मन्दतम फल भोगना पड़ता है। रस का अर्थ है-अनुभव करना, कर्म का फल भोगना। कई दफा कर्म का फल बहुत तीव्र रूप में भोगना पड़ता है, जबकि कई बार मन्दरूप में भोगना पड़ता है।
इसे भलीभाँति समझने के लिए सच्ची घटना लीजिए-अहमदाबाद के वी. एस. हॉस्पिटल के जनरल वार्ड में एक व्यक्ति रुग्णशय्या पर बैठा हुआ अपना सिर । पकड़कर पछाड़ रहा था और जोर-जोर से चिल्लाता हुआ कह रहा था-हे भगवान ! हाय ! मर गया, मर गया ! उसके पास ही उसके पुत्र-पुत्री, पली आदि स्व-जन रोरोकर हमदर्दी प्रकट करते हुए उसे आश्वासन दे रहे थे। दृश्य अत्यन्त करुण था। ऐसा मालूम होता था कि यह व्यक्ति शीघ्र ही मर जायेगा, क्योंकि उसके मुख पर अपार वेदना की झलक थी। लगभग दो घंटे बाद सिरदर्द गायब हो गया। था तो सिरदर्द लेकिन पीड़ा के मारे चैन नहीं पड़ रहा था। यह था असाता वेदनीय कर्म का तीव्र रसबन्ध !
इसके विपरीत किसी के हलका-सा सिरदर्द था। किसी व्यक्ति ने उससे पछ लिया-भैया ! कैसे हो ? तो वह तपाक से बोल उठेगा-"आनन्द ही आनन्द है ! हल्का-सा सिरदर्द तो चलता है।" और वह अपने कार्य में जुट जाएगा। यद्यपि असातावेदनीय कर्म के उदय से सिरदर्द तो हुआ था, किन्तु रस की तीव्रता नहीं थी। क्लिष्ट अध्यवसायों की तीव्रता-मन्दता के अनुसार रसबन्ध ___ इसी प्रकार किसी को एक-सौ एक डिग्री बुखार हो, किसी को एक सौ पाँच डिग्री हो, इसी प्रकार कर्म बांधते समय परिणामों की मन्दता-तीव्रता के अनुसार रसबन्ध होता है और जैसा रस पड़ा हो, उसी प्रकार से भोगना पड़ता है। कर्मपरमाणुओं में जो कटु, तिक्त, कसैला, अम्ल और मधुर रस रहता है, उनमें स्वतः फल-प्रदान करने १. (क) जैन धर्म और दर्शन (गणेश ललवानी), पृ. १०५-१०६
(ख) कर्म-फिलोसोफी (व्याख्याता : विजयलक्ष्मणसूरी जी), पृ. ३५
(ग) आत्मतत्व विचार (विजयलक्ष्मणसूरीश्वर जी). पृ. २८८ ।। २. रे कर्म तेरी गति न्यारी (आ. विजयगुणरत्नसूरी जी), पृ. ५७
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