________________
कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप १८३ की शक्ति नहीं रहती। उनमें एक प्रकार का रस तभी उत्पन्न होता है, जब परमाणु आत्मा के साथ संलिष्ट होते हैं। जिस प्रकार सूखी घास गाय-भैंस आदि के पेट में जाकर उनकी शारीरिक विशिष्टता के कारण स्नेहयुक्त दुग्ध में परिणत हो जाती है। यह रसबन्ध की प्रक्रिया भी करीब-करीब उसी प्रकार की है। बन्ध के समय आत्मा में राग-द्वेषादि-जनित क्लिष्ट अध्यवसाय रहने से अशुभ-प्रकृति-विशिष्ट कर्म में तीव्र और शुभ-प्रकृति-विशिष्ट कर्म में मन्द रसबन्ध होता है। इसके विपरीत आत्मा में शुभ अध्यवसाय रहने से अशुभ-प्रकृति-विशिष्ट कर्म में मन्द रसबंध और शुभप्रकृतिविशिष्ट कर्म में तीव्ररस-बन्ध होता है।
प्रदेश बंध की विशेषता प्रदेश कहते हैं-जड़ द्रव्य या पुद्गल क्षुद्रतम अविभाज्य अंश का परमाणु को। आत्मा के अविभाज्य अंश को आत्मप्रदेश कहते हैं। दो या दो से अधिक परमाणु द्वारा निर्मित द्रव्य को स्कन्ध कहते हैं। आत्मा के साथ बद्ध होने के लिए आगत कार्मणवर्गणा के स्कन्ध-समूह, संख्येय, असंख्येय या अनन्त-परमाणुओं से गठित न हो कर अनन्तानन्त परमाणु से गठित होते हैं। वस्तुतः मन-वचन-काया के योग के प्रभाव से जब कर्म-पुद्गल-स्कन्ध जीव के साथ बद्ध होने के लिए आते हैं, तब न्यूनाधिक परिमाण-से युक्त कर्म-पुद्गल स्कन्ध के साथ आत्मा के साथ बंध को प्रदेशबन्ध कहते हैं। प्रदेशबन्ध में आत्मा अपने निकटवर्ती कर्मस्कन्धों को योग द्वारा अपनी ओर खींचकर अपने आत्मप्रदेशों में ओतप्रोत कर लेता है। आशय यह है कि आत्मा के साथ कार्मण वर्गणा के स्कन्धों का समूह जितना जुड़ता है, अथवा जीव के द्वारा • जितने परिमाण में उन्हें ग्रहण किया जाता है, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं।
चतुःश्रेणी कर्मबन्ध : कर्मद्रव्य के द्रव्यादि स्वचतुष्टय पूर्वोक्त चतुःश्रेणीबन्ध द्रव्यकर्म से सम्बन्धित है। अन्य पदार्थों की भाँति कर्म का बन्ध भी चार अपेक्षाओं से युक्त है। ये चारों अपेक्षाएँ कर्मबन्ध के ही स्व-चतुष्टय हैंअर्थात्-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव। कार्मणवर्गणा से निर्मित होने के कारण वह स्व-द्रव्य है। ज्ञान आदि को आवृत, विकृत या कुण्ठित करने का स्व-भाव उसकी प्रकृति है। कार्मण-शरीर के आकार वाला होना उसका स्व-क्षेत्र है, जिसका मान उसके प्रदेशों से किया जाता है। किसी निश्चित काल तक जीव के साथ रहना उसका स्व-काल है; और वही कहलाती है-उसकी स्थिति। उसकी तीव्र या मन्द फलदान-शक्ति भी उसका स्व-भाव है, जिसे अनुभाग कहा जाता है। संक्षेप में, इन विचारों को कर्मबन्ध के स्व-चतुष्टय कह सकते हैं। कार्मण-स्कन्धरूप द्रव्यकर्म का पिण्ड स्व-द्रव्य है। उसमें स्थित प्रदेश उसका क्षेत्र है, उसकी स्थिति काल है और अनुभाग उसका भाव है। १. (क) जैनधर्म और दर्शन, पृ. १०७, ११० ___ (ख) आत्मतत्यविचार, पृ. २८८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org