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= प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप =
अनन्त संसारी जीवों के पृथक्-पृथक् स्वभाव पर से उनकी विशेषता का निर्णय
इस संसार में अनन्त जीव हैं, और उनका स्वभाव भी पृथक्-पृथक् है। चार गाति के जीवों का भी स्वभाव पृथक्-पृथक् है। देवों का स्वभाव अलग है, नारकों का स्वभाव इनसे बिलकुल पृथक् है; तिर्यञ्चों का स्वभाव भी इन दोनों से विलक्षण है
और मनुष्यों का स्वभाव भी इन सबसे भिन्न है। इन चारों गतियों के जीवों में भी प्रत्येक गति के, विभिन्न जातियों, तथा योनियों का स्वभाव भी एक दूसरे से पृथक् है। एक मनुष्य जाति को ही लीजिए। उसमें भी अगणित प्रकार, विभिन्न रूप, रंग, आकृति और प्रकृति के मनुष्य प्रतीत होते हैं। कोई क्रूर होते हैं, कोई शान्त, कोई बुद्धिमान होते हैं, और कोई मन्दबुद्धि। कोई अहंकारी होते हैं, तो कोई नम्र, निरभिमानी। कोई अतिलोभी होते हैं, तो कोई अल्पलोभी या निर्लोभी। कोई ठग, कपटी और धूर्त होते हैं, तो कोई सरल, ईमानदार और निश्छल । इस प्रकार एक मनुष्य जाति में ही नहीं, मनुष्य के एक परिवार, धर्म-संघ, ज्ञाति, प्रान्त और राष्ट्र में भी पृथक्-पृथक् स्वभाव के नर-नारी होते हैं। मनुष्यों के ही नहीं, प्राणिमात्र के स्वभाव पर से उनकी जाति, गुण, शक्ति और प्रकृति का प्रायः अनुमान लगाया जाता है कि यह अमुक जाति या अमुक गति-योनि या समूह का प्राणी है। स्वभाव प्राणी के जीवन को परखने और नापने का एक थर्मामीटर है। स्वभाव से ही मनुष्य के गुणों और उसकी. शक्तियों का आकलन किया जाता है। स्वभाव पर से ही स्त्री-पुरुषों का प्रायः वैवाहिक सम्बन्ध बांधा जाता है। स्वभाव पर से व्यक्ति अपने यहाँ कर्मचारी, नौकर, सेवक या मुनीम-गुमाश्ते की नियुक्ति करता है। स्वभाव जीवन की विशेषताओं को प्रगट करने का विशिष्ट आधार है।
कर्मों के पृथक्-पृथक् स्वभाव से उनका पृथकरण जैसे प्राणियों के स्वभाव पर से उनका पृथक्करण या विभाजन किया जाता है, वैसे ही कर्मों के स्वभाव पर से उनका पृथक्करण या विभाजन किया जाता है। आत्मा के साथ कर्म का बन्ध या श्लेष होने के साथ ही उस कर्म के स्वभाव (नेचर
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