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१८४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
कर्मबन्ध के साथ चतुःश्रेणीबन्ध अवश्यम्भावी
कर्मबन्ध तो हो, परन्तु उसकी कोई प्रकृति, स्वभाव या जाति न हो, यह असम्भव है । जिस प्रकार पुद्गल की प्रकृति रूप- रसादियुक्त होना है, और चेतन की है - ज्ञान । उसी प्रकार कर्म की भी कोई फलदान रूप प्रकृति होनी चाहिए। कर्मबन्ध तो हो, किन्तु उसकी कोई स्थिति, आयु या काल-सीमा न हो, यह असम्भव है। जिस प्रकार सभी पुद्गल-स्कन्धों की तथा शरीरधारी जीव की न्यूनाधिक कुछ न कुछ स्थिति अवश्य होती है, जिसके पूर्ण हो जाने पर वह जीर्ण-शीर्ण हो जाता है या मर ( नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार बन्ध को प्राप्त कर्म की भी कोई स्थिति अवश्य होती है, जिसके पूर्ण होने पर वह शरीर की तरह जीव का साथ छोड़ देता है। शुद्ध द्रव्यों की स्थिति अनादि - अनन्त होती है, क्योंकि उसकी नवीन उत्पत्ति या विनाश नहीं होता। इसके विपरीत बन्ध को प्राप्त अशुद्ध पुद्गल व अशुद्ध जीव की स्थिति या आयु अवश्य होती है। इसी प्रकार कर्मबन्ध तो हो, परन्तु उसके कर्मफल का तीव्र या मन्द रस या अनुभाग के रूप में अनुभव न हो, यह असम्भव है। प्रकृति तथा अनुभाग इन दोनों में कर्म-फलप्रदान की अपेक्षा से समान बन्ध होते हुए भी अन्तर है। प्रकृति सामान्य है, अनुभाग उसका विशेष है । आम नामक पदार्थ की प्रकृति तो मीठापन है, परन्तु वह कितना कम या अधिक मीठा है ? यह उसका अनुभाग है। दूधरूप से समान प्रकृति वाले होते हुए भी भैंस के दूध में चिकनाहट अधिक होती है, बकरी के दूध में कम । इसी प्रकार कर्म की फलदानशक्ति की तरतमता का नाम अनुभाग है। वर्तमान युग की भाषा में इसे डिग्री कहा जा सकता है। अनुभाग भावात्मक होने के कारण इससे कर्मबन्ध को ( अविभाग - प्रतिच्छेद से) नापा जाता है। कर्म भी अन्य स्कन्धों की भाँति पुद्गलस्कन्ध माना गया है, भले ही वह कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें एक से अधिक परमाणु या प्रदेश अवश्य होने चाहिए, क्योंकि अकेला परमाणु बन्ध को प्राप्त नहीं हो सकता। इसी दृष्टि से कर्मस्कन्ध के रूप में स्थित परमाणुओं का परिमाण प्रदेशबन्ध माना गया है। स्वचतुष्टय को धारण करने से कर्मबन्ध की यह चतुःश्रेणी एक सत्ताभूत पदार्थ है, काल्पनिक वस्तु नहीं। वीतरागीजनों के सिवाय संसारी प्राणियों में कहीं भी ऐसा नहीं होता कि प्रकृति और प्रदेश तो हों, पर स्थिति और अनुभाग न हों। अतः कर्मबन्ध के साथ ही उसके अंशरूप इस चतुःश्रेणीबन्ध को भलीभाँति जानना आवश्यक है । १
१. कर्म सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) से साभार उद्धृत, पृ. ४५ से ४७ तक ।
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