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१७0 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) करती हैं, वह कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार अधिक या अल्प स्थिति वाला होता है। यथासंभव रसबन्धानुसार शुभाशुभफलविपाक का कारण भी। इसलिए उसमें वहाँ कषाय भाव होने से आस्रव और उसके साथ बन्ध भी प्राप्त हो जाता है। अर्थात् उसमें वहाँ कुछ काल तक टिके रहने की शक्ति भी प्रगट हो जाती है, अर्थात्-वह स्थितियुक्त हो जाता है। जैसे-चिकने कपड़े पर पड़ी हुई धूल उस पर इस प्रकार जम जाती है कि झाड़ने पर भी नहीं झड़ती; वैसे ही साम्परायिक कर्म के संस्कार जीव के चित्त पर इस प्रकार अंकित होकर बैठ जाते हैं कि पर्याप्त प्रयत्न करने के बावजूद भी दूर नहीं होते। कषायभाव का व्यापक रूप : भावबन्ध का कारण __कषायभाव के कारण समग्र को युगपत् ग्रहण न करके क्षुद्र अहंकार अपने में मैं-मेरा, तू-तेरा, इष्ट-अनिष्ट, शत्रु-मित्र, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, ग्राह्य-त्याज्य, इत्यादि रूप परस्पर विरोधी तथा विषम द्वन्द्वों की सृष्टि कर लेता है। अध्यात्मशास्त्र में अहंकार भाव विषम द्वन्द्वों के नाम से प्रसिद्ध है, उसे ही आचारशास्त्र में राग और द्वेष कहा गया है। इन दो विषम-द्वन्द्वों में मैं, मेरा, इष्ट, मित्र, स्वजन, कर्तव्य एवं ग्राह्य आदि एक पक्ष अनुकूल तथा आकर्षक है, तो दूसरा इससे प्रतिकूल तथा विकर्षक पक्ष हैतू, तेरा, अनिष्ट, शत्रु, अकर्तव्य, त्याज्य आदि वाला। राग वाला पक्ष आकर्षक है
और द्वेष वाला पक्ष विकर्षक । अनुकूल पक्षों के प्रति आकर्षित होना, अर्थात्-उन्हें जानने, प्राप्त करने और भोगने के लिए प्रवृत्त होना राग है, और इनसे प्रतिकूल पक्षों के प्रति विकर्षित होना, अर्थात्-उन्हें अपने से दूर हटाने, तथा त्याग करने के लिए प्रवृत्त होना द्वेष कहलाता है।२ भावात्मक होने के कारण ये सब भावबन्ध के कारण
रागद्वेषात्मक भावबन्ध के भी दो प्रकार-पापबन्ध, पुण्यबन्ध __राग और द्वेष के विषय में भेद पड़ जाने के कारण उनके द्वारा होने वाला बन्ध भी दो प्रकार का होता है-(१) पापबन्ध और (२) पुण्यबन्ध। ऐन्द्रियक विषयों के क्षेत्र में होने वाले व्यावहारिक रागद्वेष से अशुभबन्ध या पापबन्ध होता है, जबकि 'अशुभे निवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः' वाले प्रशस्त या परार्थिक राग-द्वेष से शुभबन्ध या १ (क) जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा योच्छिना भयंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, न
संपराइया किरिया कज्जइ । जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिना भवति, तस्स णं
संपराइया किरिया कज्जइ, नो इरियावहिया । -भगवती श. ७ उ. १ सू. २६७ (ख) सकषायाकषाययोः सापरायिकेर्यापथयोः।'
-तत्त्वार्थसूत्र अ.६, सू.५ (ग) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) (घ) तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी), पृ. १५०-१५१
(ङ) कर्म-रहस्य (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १२८ २. कर्म रहस्य, पृ. १२९
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