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कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप १७५ निर्मित होता है। वह स्वभाव अमुक समय तक उसी रूप में बना रह सके, ऐसी काल मर्यादा उसमें स्वतः निर्मित हो जाती है। फिर उस मधुरता में तीव्रता-मन्दता आदि विशेषताएँ भी होती हैं। साथ ही उस दूध में दुग्धतत्व कितनी मात्रा (परिमाण) में है? यह भी स्वतः निर्मित एवं निश्चित हो जाता है। इसी प्रकार जीव द्वारा गृहीत एवं आत्मप्रदेशों में संश्लेष को प्राप्त कर्मपुद्गलों में भी चार अंशों का निर्माण होता है-(१) प्रकृतिबन्ध, (२) प्रदेशबन्ध, (३) अनुभाग (रस) बन्ध और (४) स्थितिबन्ध।
बन्ध के चार अंशों का संक्षेप में स्पष्टीकरण इसे विशेष स्पष्ट रूप से समझ लें-(१) ग्रहीत कर्मपुद्गलों में से किसी में ज्ञान को आवृत करने का, किसी में दर्शन को आच्छादित करने का, किसी में सुख-दुःख का अनुभव कराने, तथा किसी में चारित्र को कुण्ठित करने आदि का जो स्वभाव बनता है, वह स्वभाव-निर्माण ही प्रकृतिबन्ध है। (२) गृहण किये जाने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव में परिणत होने वाली कर्म-पुद्गल-राशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण में बँट जाती है। यह परिमाण-विभाग ही प्रदेशबन्ध है। (३) स्वभाव बनने के साथ ही उसमें तीव्रता, मन्दता आदि रूप में फलानुभव कराने वाली विशेषताएँ बँधती हैं, दूसरे शब्दों में, उन गृहीत कर्मपुद्गलों में न्यूनाधिक फल देने की शक्ति रसबन्ध है; यही अनुभाव बन्ध या अनुभागबन्ध है। (४) स्वभाव-निर्माण के साथ ही उस स्वभाव से अमुक काल.तक च्युत न होने की मर्यादा भी कर्मपुद्गलों में स्वतः निर्मित हो जाती है, उस काल-सीमा (स्थिति) का निर्माण ही स्थितिबन्ध है।
. प्रकृति-प्रदेशबन्ध योगाश्रित, स्थिति-अनुभागबन्ध कषायाश्रित . कर्म-बन्ध की इन चार अंशरूप अवस्थाओं में प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग के आश्रित हैं। योगों के तरतमभाव पर ही प्रकृति और प्रदेशबन्ध का तारतम्य अवलम्बित है; जबकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय के आश्रित हैं। क्योंकि कषाय की तीव्रता-मन्दता पर ही स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध की न्यूनाधिकता अवलम्बित है। कर्मग्रन्थ में स्पष्ट कहा गया है-योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं, जबकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध (रसबन्ध) कषाय से होते हैं।
बन्ध के चार रूपों का आधार : योग और कषाय सारांश यह है कि जीव के योग और कषायरूप भावों का निमित्त पाकर जब कार्मण-वर्गणाएँ कर्मरूप में परिणत होती हैं, तो उनमें चार बातें होती हैं-एक उनका स्वभाव दूसरे स्थिति (काल का निर्णय), तीसरे फल देने की शक्ति और चौथे अमुक परिमाण (मात्रा या संख्या) में जीव के साथ उनका सम्बन्ध होना। इन चार बातों को ही चार प्रकार के बंधांश या बन्ध के चार रूप कहते हैं। १. तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. १९५
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