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कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १७१ पुण्यबन्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र में शुभ आसव को पुण्य-बन्ध का और अशुभ आस्रव को पापबन्ध का हेतु बताया है।' इस विषय में आगे प्रकाश डाला जाएगा।
कर्मबन्ध के दो प्रकार : द्रव्यबन्ध भावबन्ध, नो-आगमतः द्रव्यबन्ध इसीलिए भगवतीसूत्र में कर्मबन्ध के सन्दर्भ में द्रव्यबन्ध और भावबन्ध, ये बन्ध के दो भेद बताकर बाद में भावबन्ध के आगमतः, नो-आगमतः ये दो प्रभेद भी कहे गए हैं। परन्तु यहाँ कर्मबन्ध के प्रसंग में 'नो-आगमतः भावबन्ध' का ग्रहण ही विवक्षित है।
भावबन्ध के दो भेद : मूल प्रकृतिबन्ध, उत्तर प्रकृतिबन्ध इसी सन्दर्भ में भावबन्ध के दो भेद बताए गए हैं-मूल प्रकृतिबन्ध, और उत्तर-प्रकृतिबन्धारे इस विषय में आगे विशेष विवेचन किया गया है।
. विभिन्न पहलुओं से बन्ध के प्रकार इसी सन्दर्भ में दो प्रकार के बन्धों का निरूपण है-प्रयोगबन्ध और विनसाबन्ध। जीव के प्रयोग से द्रव्यों का बन्ध होना प्रयोगबन्ध है, जबकि अनायास ही स्वाभाविक रूप से दो पदार्थों का बन्ध होना विनसाबन्ध है। सर्वार्थसिद्धि में कहा गयापुरुष-प्रयोग से निरपेक्ष वैनसिकबन्ध है, और पुरुष-प्रयोग-सापेक्ष प्रायोगिकबन्ध है। फिर विनसाबन्ध दो प्रकार का कहा है-सादि विनसाबन्ध और अनादिविनसाबन्ध। प्रायोगिकबन्ध के भी दो भेद हैं-शिथिल बन्धनबद्ध और गाढ़बन्धनबद्ध। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के रूप में बंध चार प्रकार का है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के भेद से पांच प्रकार का है, तथा निक्षेप की दृष्टि से बन्ध के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से ७ प्रकार हैं। ज्ञानवरणीयादि मूल प्रकृतियों के बंधरूप भेद से आठ प्रकार का है। तथा राग, द्वेष, मोह एवं कषाय-चतुष्टय, इन कर्मबन्ध हेतुओं को उपचार से कर्मबन्ध कहने से ७ प्रकार का है। तथा कर्मप्रदेशों अथवा कर्मों के अनुभाग-प्रतिच्छेदों की अपेक्षा से कर्मबन्ध के • 'अनन्त प्रकार हैं। इन सब बंधों पर विवेचन हम यथास्थान करेंगे। संसारी जीवों के पद-पद पर क्षण-क्षण में होने वाले कर्मबन्धों की गणना ही असंभव है।३ ..
१. (क) पुण्ण पायासयो तहा ।
-उत्तरा-२०/१४ (ख) शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।
-तत्त्वार्थ ६/३-४ २. (क) दुविहे बंधे पन्नत्ते त.-दव्यबंधे य भावबंधे य । (ख) दुविहे भावबंधे प. सं.-मूलपगडिबंधे य उत्तर-पगडिबंधे य ।
-भगवती श.१८, उ.३ सू.१० से १४ तक ३. (क) भगवतीसूत्र, श. १८, उ.३, सू.११, १२, १३
(ख) जैनन्द्र सिद्धान्त कोष में बंध शब्द, पृ. १७० (ग) राजवार्तिक अ.८
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