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कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १६९ इष्ट-प्राप्ति, अनिष्टनिवृत्ति भी फलाकांक्षारूप भावबन्ध की हेतु तच्छ स्वार्थकत कार्य में सदैव-सतत फलभोग की-इष्टविषयों की प्राप्ति और अनिष्ट से निवृत्ति की ओर आँखें लगी रहती हैं, फलभोग की उपर्युक्त, आकांक्षा से निरपेक्ष होकर काम करना उसने सीखा ही नहीं है। इष्ट-विषयों की प्राप्ति और अनिष्ट विषयों से निवृत्ति होती दिखती है, तभी वह कार्य में प्रवृत्त होता है, अन्यथा नहीं। इसलिए भावबन्ध का, तथा रागद्वेष का उपर्युक्त समस्त विस्तार फलभोग की पूर्वोक्त प्रकार की आकांक्षा में समाविष्ट हो जाता है।
कषायभाव-अकषायभाव से साम्परायिक एवं ईर्यापथिक बन्ध : एक चिन्तन
कषाय युक्त कर्म से साम्परायिक बन्ध और कषायरहित कर्म से असाम्परायिक बन्ध होता है। पहले से दसवें गुणस्थान तक के सभी जीव न्यूनाधिक प्रमाण में सकषाय होते हैं तथा ग्यारहवें तथा आगे के गुणस्थानवर्ती होते हैं-अकषाय। आशय यह है कि कषायों-सहित जो आस्रव (बन्धहेतु) है, वह साम्परायिक आसवोत्तरकालीन बन्ध कहलाता है। अर्थात्-मन-वचन-काय-योगों की क्रियाओं द्वारा आकृष्ट होने वाला जो कर्म कषायोदय के कारण आत्मा के साथ सम्बद्ध होकर स्थिति को पा लेता है, वह साम्परायिक कर्मबन्ध है। साम्परायिक कर्मबन्ध संसार बन्धन को दृढ़ करने वाला, उसकी वृद्धि करने वाला; आत्मा को पराभूत करने वाला एवं संसार में परिभ्रमण कराने वाला है। इसके विपरीत जिन जीवों के कषाय नष्ट हो चुके हैं, जो वीतराग हैं या उपशान्तमोह हैं, उनकी गमनागमन, विहार, उपदेशादि सभी चर्याएँ (ई)-क्रियाएँ ईर्यापथिकी हैं। वहाँ असाम्परायिक या ईर्यापथिक बन्ध होता है, जो संसार-परिभ्रमण का कारण नहीं होता। जिस प्रकार सूखी दीवार पर रज-कण अच्छी तरह न चिपक कर केवल उसका स्पर्श करके तुरंत ही अलग हो जाते हैं, झड़ जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा में कषाय की आर्द्रता-स्निग्धता न होने से योगों से आकृष्ट कर्म केवल आत्मा के साथ लगकर स्पर्शरूप से बद्ध होकर तुरंत ही छूट जाता है। ईर्यापथ-कर्मबन्ध में स्थिति तो अवश्य ही होती है, किन्तु वह होती है, सिर्फ एक समय की। एक समय मात्र स्थिति को बंधसंज्ञा प्राप्त नहीं होती, क्योंकि उस समय में तो वह आया ही है, केवल सातावेदनीय के रूप में, अगले समय टिके तो बन्ध कहलाए। अगले समय में तो वह झड़ (नष्ट हो जाता है। कर्म के आने का नाम बन्ध नहीं, टिकने का नाम है। इसलिए इसे बन्ध कसे कहा जा सकता है ? निष्कर्ष यह है-रागादि (कषायादि) युक्त भाव (परिणाम या अध्यवसाय) न होने से कर्म वहाँ बंध को प्राप्त नहीं होते। बल्कि अनन्तरवर्ती उत्तरसमय में ही सूखे वस्त्र पर पड़ी हुई रजवत् झड़ जाते हैं। कषायभाव न होने से योग द्वारा उपार्जित कर्म में स्थिति या रस का बन्ध नहीं होता। दूसरी ओर, कषाययुक्त सांसारिक आत्माएँ मन-वचन-काया के शुभ-अशुभ योग द्वारा जो कर्मबन्ध १. कर्मरहस्य, पृ. १३२
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