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कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप
विभिन्न दवाइयों के स्वभाव, परिमाणादि स्वतः काम करते हैं, वैसे ही कर्मबन्ध के चार रूप
एक दवाखाना है। उसमें कई प्रकार के रोगों की दवाइयाँ रखी हैं। उनमें कोई सिरदर्द की दवा है, कोई उदर- पीड़ा की है, तो कोई मलोरिया बुखार की दवा है, कोई टी. बी. की औषधि है, कोई रक्त चाप की दवाई है तो कोई हृदयरोग-निवारण की है, कोई पित्त - शमन की दवा है। इन सब दवाइयों का स्वभाव अलग-अलग है। ये भिन्न-भिन्न जड़ी-बूटियों, सूखे फलों एवं औषधियों को कूट-पीस कर मिश्रण करके बनाई गई हैं, गोलियों के रूप में बाँधी गई हैं। इसके अतिरिक्त इनकी शक्ति में भी न्यूनाधिकता है। इन औषधियों के द्वारा रोग निवारण की कालावधि भी पृथक्-पृथक् है। कोई दवा सेवन करते ही तत्काल रोग मिटा देती है। कोई एक-दो दिन में, कोई महीने में और कोई छह महीने में जाकर रोग मिटाती है। उनमें से कई दवाइयों की शक्ति बहुत अधिक है, कई दवाइयाँ ऐसी तीव्र असर करने वाली होती हैं कि, एक गोली ही उस रोग को मिटाने में पर्याप्त होती है, दूसरी गोली लेने की जरूरत नहीं रहती। कई दवाइयाँ इतनी तीव्र असर करने वाली नहीं होतीं, वे धीरे-धीरे असर करती हैं, और रोगी उनकी कई गोलियाँ खा लेता है, तथा कई शीशियाँ खाली कर देता है, तब वे असर करती हैं।
परन्तु यदि वे दवाइयाँ अलमारी में ही पड़ी रहें, रोगी उनका यथायोग्य सेवन न करे, दवा गले से नीचे न उतारे तो वे किसी भी रोग का निवारण नहीं कर पातीं। कर्मग्रहण एवं बन्ध के साथ ही उसके परिमाण, स्वभाव, काल और फलदान का निर्णय
ठीक इसी प्रकार कर्मबन्ध की प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए। कर्मवर्गणा के पुद्गल - परमाणु तो आकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं। समग्र लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ कर्म-योग्य - पुद्गल - परमाणु विद्यमान न हों। परन्तु जब प्राणी मन, वचन
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