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कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १६५ क्षेत्रावगाहरूप में जो पूर्वबद्ध कर्मवर्गणा है, उसमें नई कर्मवर्गणा का स्निग्ध-रूक्ष भाव से आकर्षित होना द्रव्यबन्ध है।
(३) आत्मा के साथ कर्मवर्गणा का संयोग सम्बन्ध, तीसरे प्रकार का कर्मबन्ध है। यह रूपी और अरूपी का सम्बन्ध है। इसे द्रव्यबन्ध कहा जाता है। इस प्रकार द्रव्य, भाव तथा उभय, अथवा जीव, पुद्गल तथा उभयबन्ध के भेद से तीन प्रकार का बन्ध
है।
द्रव्यबन्ध और भावबन्ध में किसकी मुख्यता और क्यों? द्रव्यबन्ध और भावबन्ध इन दोनों में मुख्यता किसकी है, गौणता किसकी? इसे समझ लेना चाहिए। कर्म सिद्धान्त द्रव्यबन्ध की मुख्यता से कथन करता है और अध्यात्मशास्त्र भावबन्ध की मुख्यता से। परन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है, केवल कथन-पद्धति में अन्तर है। क्योंकि द्रव्यकर्म और भावकों का परस्पर इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि किसी भी एक को जान लेने पर दूसरे का ज्ञान स्वतः हो जाता है। फिर भी समझने-समझाने के लिये द्रव्यबन्ध की तरफ से कथन करने में आसानी रहती है; जबकि भावबन्ध का कथन बहुत विस्तृत और जटिल हो जाता है। एक कारण यह भी है कि भाव केवल स्व-संवेदनगम्य होने के कारण भावों के परस्पर बन्ध का कथन दुष्कर हो जाता है। निमित्त की भाषा पराश्रित होने से सम्भव भी है, सुगम्य भी, और सर्वजनपरिचित होने से सरल भी।३ .. बन्ध, उदय, उदीरणा सत्तादि का कथन द्रव्य कर्मबन्ध की अपेक्षा से
इसलिए कर्मविज्ञान में बन्ध-चतुष्टय रूप व्यवस्था की कथन पद्धति में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को जानने के लिए द्रव्यकर्म का आश्रय लेना अनिवार्य हो जाता है। यही कारण है कि कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, गोम्मटसार, कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में द्रव्यकों की अपेक्षा से बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का कथन किया गया है। उनके निमित्त से होने वाले जीव के भावों का नहीं। जीव-भावों का परिज्ञान स्वयं कर लेना चाहिए। . किन्तु जीव के भावकर्म की दिशा में यह बात अवश्यम्भावी है कि उस समय वह 'जीवं उसी प्रकार विकल्प या कषाय अवश्य कर रहा होता है। अन्यथा उस प्रकृति का बन्ध, उदय आदि होना सम्भव नहीं था। उदय भी जिस प्रकृति का होना कहा गया है, वहाँ भी जीव के भावों में उसी प्रकार का विकल्प या कषाय उदित अवश्य होता है और तदनुरूप उसके ज्ञान-दर्शनादि गुण आच्छादित, विकृत या कुण्ठित हो जाते हैं. अन्यथा अमुक कर्म का उदय कहना निष्प्रयोजन हो जाएगा। १.. वही, पृ. ४३ २. (क) कर्म अने आत्मानो संयोग
(ख) प्रवचनसार (मूल) १७७ ३. जैनसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ८१
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