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१६४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) सजातीय होने पर दोनों बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि अमूर्तिक जीव अपना ज्ञान-स्वभाव छोड़कर मूर्तिक ज्ञेय के साथ एकात्मता साध लेता है और तन्मय होकर रागद्वेषात्मक परिणाम करता है। राग-द्वेषात्मक परिणाम स्निग्धता-रूक्षतारूप हैं, . कर्मपुद्गलों में भी स्निग्ध-रूक्षता रूप परिणति हुई। वे उसके क्षेत्र में आकर प्रविष्ट हुए, अपनी विभावशक्ति से सजातीय (मूर्तिक बने हुए) जीव के साथ बन्ध गए। यह द्रव्यबन्ध है। कर्म और आत्मा का तीन प्रकार का सम्बन्ध
जैन कर्म-विज्ञान का गहराई से चिन्तन करते हैं तो कर्म और आत्मा का तीन प्रकार का सम्बन्ध (बन्ध) परिलक्षित होता है
(१) आत्मा के अशुद्ध उपयोग रूप परिणमन से कर्म के साथ होने वाला भावबन्ध । यह बन्ध अरूपी के साथ अरूपी का है। आत्मा भी निश्चय दृष्टि से अरूपी है और राग-द्वेषादि या कषायादि परिणाम (भाव) भी अरूपी हैं। दोनों का यह बन्ध (सम्बन्ध) परिणामी और परिणाम का है। जिसमें कर्ता भी आत्मा है और परिणमनरूप कर्म (क्रिया) भी आत्मा है।
परिणामीपन आत्मा का स्वभाव है। सिद्ध परमात्मा सर्वथा कर्ममुक्त होते हुए भी अपने आत्मभावों में परिणमन करते हैं, उनका यह परिणमन आत्मा का स्वभाव-सिद्ध परिणाम है। परन्तु जब आत्मा स्व-द्रव्य में अपना अविशेष-स्वभावसिद्ध परिणमन प्रवर्तन छोड़ कर विशेषतायुक्त प्रवृत्त होता है-(पर द्रव्य में) परिणमन करता है, तब वह विशेष-परिणाम-परभावी-परिणाम ही भावकर्मबन्ध का हेतु है। वस्तुतः यह प्रथम वर्ग का बन्ध अशुद्ध निश्चय से विभावपरिणमन रूप अरूपी. (आत्मा) का अरूपी (विभावों) के साथ बन्ध-भावबन्ध है। इसीलिए द्रव्यसंग्रह में कहा गया-आत्मा के जिन विकारी भावों से कर्म बंधते हैं, वह भावबन्ध है और भावबन्ध के निमित्त से आत्मप्रदेश और कर्मपरमाणुओं का परस्पर सम्बद्ध होना द्रव्यबन्ध है। बन्ध की इस परिभाषा के अनुसार आत्मा से नहीं, आत्मा के औपाधिक भाव-अशुद्ध (विकारी) भाव (शुभ-अशुभ भाव) से ही कर्म बंधता है। आत्मा के शुद्ध भाव तो स्व-भावरूप हैं, शेष समस्त अशुद्ध भाव आस्रव एवं बंध के कारण हैं। यहाँ अशुद्ध निश्चयनय से चेतन-परिणाम को 'भाव' कहा गया है। निश्चयबन्ध तो सिर्फ आत्मा का रागद्वेष रूप परिणमन ही है। पुद्गल कर्म से बन्ध तो केवल औपचारिक-व्यावहारिक है। भावनाग्राह्य अरूपी स्वरूप को स्थूल तथा लौकिक भावों में उतारने का प्रयलमात्र है।
(२) पुरातन कर्म-पुद्गल के साथ नूतन कर्म (परमाणु पुद्गल) वर्गणा का सम्बन्ध-बन्ध है। सम्बन्ध रूपी के साथ रूपी के बन्ध रूप है। जीव के प्रदेश में एक
१. मुक्ति के ये क्षण से भावांशग्रहण, पृ. १00 २. कर्म अने आत्मानो संयोग (श्री अध्यायी), पृ. ४२-४३
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