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कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १५९
है। इसी प्रकार हम चाहे भौतिक विज्ञान में बहुत दक्ष हों, विज्ञान के शिखर पर पहुँच जाएँ, परन्तु हम ममत्व की - राग - मोह की डोरी से -भाव की डोरी से बंधे हुए हैं-कभी मकान से, कभी दूकान से, कभी पुत्र-पौत्रों से, कभी परिवार, राष्ट्र, सम्प्रदाय, जाति आदि से तो वहाँ जीव का पुद्गल से तथा जीव का जीव से भावात्मक बन्ध होगा । जीव का पुद्गल के साथ जैसे भावात्मक बन्ध होता है, उन जड़ चीजों के प्रति राग, द्वेष, मोह के कारण, तथैव जीव का जड़ पुद्गलों के प्रति द्रव्यात्मक बन्ध भी होता है, कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेश से बंधने से ।
भावबन्ध कैसे ? भावबन्ध के कारण द्रव्यबन्ध कैसे ?
एक बीस मंजिली बिल्डिंग है। उसे कोई अन्य बिल्डिंगों के साथ सहजभाव में देखता जा रहा है, तो कोई बात नहीं, वह ज्ञानमय है । परन्तु अगर उस बिल्डिंग को देखकर वह ठिठक जाए और टकटकी लगा कर देखता हुआ कहे - " कितनी अच्छी बिल्डिंग है !” ऐसा भाव करते ही उसका ज्ञान अमूर्तिक के बदले मूर्तिक बन गया। उसने आकृति भी बना दी, अपने अखण्डित ज्ञान को खण्डित सीमित भी कर दिया। और उसके पश्चात् उसने उसमें रंग भी भर दिया। इस प्रकार - 'यह बिल्डिंग सर्वोत्कृष्ट है, दूसरे बिल्डिंग इसके सामने कुछ भी नहीं है,' इस प्रकार के रागात्मक व द्वेषात्मकभाव के कारण भावबन्ध हुआ, फिर जीव के अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक पदार्थ (बिल्डिंग) के आश्रय से उसके भाव मूर्तिक बन जाते हैं। इसी प्रकार से जीव और पुद्गल परस्पर बंध को प्राप्त होते हैं। यह द्रव्यबन्ध हुआ । '
सजीव निर्जीव पर वस्तुओं के प्रति रागादि भाव आते ही ज्ञान खण्डित होता है
कोई व्यक्ति बाजार से होकर जा रहा है। रास्ते में स्टेशनरी की, मनिहारी सामान की, तेल-इत्र आदि की, रेडीमेड वस्त्रों इत्यादि की अनेक दूकाने आती हैं, उसकी आँखों में वे प्रतिबिम्बित होती हैं, पर वह किसी भी वस्तु को देखकर उसके प्रति रागभाव या द्वेषभाव नहीं करता है, तो किसी से बंधता नहीं, क्योंकि वह किसी भी वस्तु को रागादि भाव से पकड़ता नहीं है। चारों ओर वह अखण्डित असीमितरूप से - सहजभाव से देख रहा है। लेकिन जैसे ही किसी वस्तु को देखते ही उस पर राग भाव या द्वेषभाव आ गया, उसका ज्ञान सीमित - खण्डित हो गया । ज्ञान के सीमित - खण्डित होते ही उसके साथ राग या द्वेष आ गया, इस प्रकार वह रागभाव या द्वेषभाव से बंध जाता है। सहज ज्ञान में ज्ञेय प्रतिबिम्बित होता रहता तो अखण्ड को देखने से नहीं बंधता, किन्तु खण्डित रूप में देखने से बंध गया, क्योंकि खण्डित को देखते ही उसके प्रति राग या द्वेष होता है। २
१. (क) मुक्ति के ये क्षण से भावग्रहण, पृ. ९३
(ख) वही, भावांशग्रहण, पृ. ९३
२. वही, भावांशग्रहण, पृ. ९३
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